माता कौशल्या से विदा - अयोध्याकाण्ड (6)

>> Saturday, October 24, 2009

अपने पिता एवं माता कैकेयी के प्रकोष्ठ से राम अपनी माता कौशल्या के पास पहुँचे। अनुज लक्ष्मण वहाँ पर पहले से ही उपस्थित थे। राम ने माता का चरणस्पर्श किया और कहा, "हे माता! माता कैकेयी के द्वारा दो वर माँगने पर पिताजी ने भाई भरत को अयोध्या का राज्य और मुझे चौदह वर्ष का वनवास दिया है। अतः मैं वन के लिये प्रस्थान कर रहा हूँ। विदा होने के पूर्व आप मुझे आशीर्वाद दीजिये।"

राम द्वारा कहे गए इन हृदय विदारक वचनों को सुनकर कौशल्या मूर्छित हो गईं। राम ने उनका यथोचित उपचार किया और मूर्छा भंग होने पर वे विलाप करने लगीँ।

उनका विलाप सुन कर लक्ष्मण बोले, "माता! भैया राम तो सद गुरुजनों का सम्मान तथा उनकी आज्ञा का पालन करते हैं। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि मेरे देवता तुल्य भाई को किस अपराध में यह दण्ड दिया गया है? ऐसा प्रतीत होता है कि वृद्धावस्था ने पिताजी की बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया है। उचित यही है कि बड़े भैया उनकी इस अनुचित आज्ञा का पालन न करें और निष्कंटक राज्य करें। भैया राम के विरुद्ध सिर उठाने वालों को मैं तत्काल कुचल दूँगा। राम का अपराध क्या है? उनकी नम्रता और सहनशीलता? मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि यदि राम के राजा बनने में भरत या उनके पक्षपाती कंटक बनेंगे तो मैं उन्हें उसी क्षण यमलोक भेज दूँगा। मैं भी उसी प्रकार आपके दुःखों को दूर कर दूँगा जिस प्रकार से सूर्य अन्धकार को मिटा देता है।"

लक्ष्मण के शब्दों से माता कौशल्या को ढांढस मिला और उन्होंने कहा, "पुत्र राम! तुम्हारे छोटे भाई लक्ष्मण का कथन सत्य है। तुम मुझे इस प्रकार बिलखता छोड़कर वन के लिये प्रस्थान नहीं कर सकते। यदि पिता की आज्ञा का पालन करना तुम्हारा धर्म है तो माता की आज्ञा का पालन करना भी तुम्हारा धर्म ही है। मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ कि अयोध्या में रहकर मेरी सेवा करो।"

इस पर माता को धैर्य बँधाते हुये राम बोले, "माता! आप इतनी दुर्बल कैसे हो गईं? ये आज आप कैसे वचन कह रही हैं? आपने ही तो मुझे बचपन से पिता की आज्ञा का पालन करने की शिक्षा दी है। अब क्या मेरी सुख सुविधा के लिये अपनी ही दी हुई शिक्षा को झुठलायेंगी? एक पत्नी के नाते भी आपका कर्तव्य है कि आप अपने पति की इच्छापूर्ति में बाधक न बनें। आप तो जानती ही हैं कि चाहे सूर्य, चन्द्र और पृथ्वी अपने अटल नियमों से टल जायें, पर राम के लिये पिता की आज्ञा का उल्लंघन करना कदापि सम्भव नहीं है। मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि आप प्रसन्न होकर मुझे वन जाने की आज्ञा प्रदान करें ताकि मुझे यह सन्तोष रहे कि मैंने माता और पिता दोनों ही की आज्ञा का पालन किया है।"

फिर वे लक्ष्मण से सम्बोधित हुये और कहा, "लक्ष्मण! तुम्हारे साहस, पराक्रम, शौर्य और वीरता पर मुझे गर्व है। मैं जानता हूँ कि तुम मुझसे अत्यंत स्नेह करते हो। किन्तु हे सौमित्र! धर्म का स्थान सबसे ऊपर है। पिता की आज्ञा की अवहेलना करके मुझे पाप, नरक और अपयश का भागी बनना पड़ेगा। इसलिये हे भाई! तुम क्रोध और क्षोभ का परित्याग करो और मेरे वन गमन में बाधक मत बनो।"

राम के दृढ़ निश्चय को देखकर अपने आँसुओं को पोंछती हुई कौशल्या बोलीं, "वत्स! यद्यपि तुम्हें वन जाने की आज्ञा देते हुये मेरा हृदय चूर-चूर हो रहा है किन्तु यदि मुझे भी अपने साथ ले चलने की प्रतिज्ञा करो तो मैं तुम्हें वन जाने की आज्ञा दे सकती हूँ।"

राम ने संयमपूर्वक कहा, "माता! पिताजी इस समय अत्यन्त दुःखी हैं और उन्हें आपके प्रेमपूर्ण सहारे की आवश्यकता है। ऐसे समय में यदि आप भी उन्हें छोड़ कर चली जायेंगी तो उनकी मृत्यु में किसी प्रकार का सन्देह नहीं रह जायेगा। मेरी आपसे प्रार्थना है कि उन्हें मृत्यु के मुख में छोड़कर आप पाप का भागी न बनें। उनके जीवित रहते तक उनकी सेवा करना आपका पावन कर्तव्य है। आप मोह को त्याग दें और मुझे वन जाने की आज्ञा दें। मुझे प्रसन्नतापूर्वक विदा करें, मैं वचन देता हूँ कि चौदह वर्ष की अवधि बीतते ही मैं लौटकर आपके दर्शन करूँगा।"

धर्मपरायण राम के युक्तियुक्त वचनों को सुनकर अश्रुपूरित माता कौशल्या ने कहा, "अच्छा वत्स! मैं तुम्हें वनगमन की आज्ञा प्रदान करती हूँ। परमात्मा तुम्हारे वनगमन को मंगलमय करें।"

फिर माता ने तत्काल ब्राह्मणों से हवन कराया और राम को हृदय से आशीर्वाद देते हुये विदा किया।

5 टिप्पणियाँ:

संगीता पुरी October 24, 2009 at 6:37 PM  

बाल्मिकी रामायण की कहानी भी तो रामचरित मानस जैसी ही चल रही है !!

GK Awadhiya October 24, 2009 at 6:50 PM  

संगीता जी,

यद्यपि रामकथा का मूल तो एक ही है किन्तु यदि आप ध्यान से पढ़ेंगी तो आपको वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस के रामकथा में बहुत सारी विभिन्नताएँ मिलेंगी। यहाँ पर मैं कथा का संक्षिप्त रूप दे रहा हूँ तो भी बहुत सारे अंतर हैं जैसे कि रामचरितमानस में देवताओं के प्रार्थना करने पर माता सरस्वती मंथरा की मति फेर देती हैं किन्तु वाल्मीकि रामायण में मंथरा अपने स्वार्थवश ही सब कुछ करती है।

अहल्या के प्रसंग में तो बहुत बड़ा अन्तर मैंने अपने पोस्ट में ही बताया है, देखेः अहल्या की कथा

जैसे जैसे कथा आगे बढ़ेगी आपको बहुत सारे अन्तर स्पष्ट होते जायेंगे।

सबसे बड़ी बात तो यह है कि तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में राम को शुरू से आखिर तक भगवान ही माना है किन्तु वाल्मीकि ने उन्हें मनुष्य मान कर ही रामायण की रचना की है।

दिनेशराय द्विवेदी October 24, 2009 at 7:11 PM  

दोनों कथाओं में बहुत अंतर हैं। आप कथा आगे ले चलें। दोनो कथाओं के अंतर बाद में बताए जा सकते हैं।

स्वप्न मञ्जूषा October 28, 2009 at 5:02 PM  

हाँ .....ज़रूर अंतर होगा... वाल्मीकि रामायण तब महर्षि वाल्मीकि ने लिखी थी जब राम ने सीता का त्याग किया था और सीता जी वाल्मीकि आश्रम ही निवास कर रहीं थीं....यह कथा सीता जी ने स्वयं महर्षि वाल्मीकि को बताई थी.....इस कारण अंतर अवश्य होगा.....एक आपबीती है और दूसरी......पटकथा.....

Rakesh Singh - राकेश सिंह October 30, 2009 at 12:42 AM  

अभी तक की कथा पढ़ने से बाल्मीकि और तुलसी रामायण मैं थोडा-थोडा अंतर तो समझ मैं आया है | और ये अंतर तो होने ही हैं क्यों की ये दो भिन्न ऋषियों , संतों द्वारा दो भिन्न काल खंडों मैं लिखी गई है पर कथा का मूल एक ही है | तुलसीदास ने राम कथा लगभग १७ लाख वर्ष बाद लिखी है ... भगवान् राम का जन्म काल लगभग १७-१८ लाख वर्ष पूर्व माना गया है |

और जहाँ तक मुझे पता है तुलसीदास ने रामचरितमानस सुर-ताल-लय मैं गाने के लिए बनाया है | रामचरितमानस के सभी श्लोकों मैं श्री राम का नाम है सिवाए एक श्लोक के | इस सन्दर्भ से भी देखें तो स्थिति स्पस्ट हो जाती है ...

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