सीता और लक्ष्मण का अनुग्रह - अयोध्याकाण्ड (7)

>> Sunday, October 25, 2009

माता कौशल्या से अनुमति प्राप्त करने तथा विदा लेने के पश्चात् राम जनकनन्दिनी सीता के कक्ष में पहुँचे। उस समय वे राजसी चिह्नों से पूर्णतः विहीन थे। उन्हें राजसी चिह्नों से विहीन देख कर सीता ने पूछा, "हे आर्यपुत्र! आज आपके राज्याभिषेक का दिन पर भी आप राजसी चिह्नों से विहीन क्यों हैं?"

राम ने गंभीर किन्तु शान्त वाणी में सीता को समस्त घटनाओं विषय में बताया और कहा, "प्रिये! मैं तुमसे विदा माँगने आया हूँ क्योंकि मैं तत्काल ही वक्कल धारण करके वन के लिये प्रस्थान करना चाहता। मेरी चाहता हूँ कि मेरे जाने के बाद तुम अपने मृदु स्वभाव तथा सेवा-सुश्रूषा से माता-पिता तथा भरत सहित समस्त परिजनों को प्रसन्न और सन्तुष्ट रखना। अब तक तुम मेरी प्रत्येक बात श्रद्धापूर्वक मानती आई हो और मुझे विश्वास है कि आगे भी मेरी इच्छानुसार तुम यहाँ रहकर अपने कर्तव्य का पालन करोगी।"

सीता बोलीं, "प्राणनाथ! शास्त्रों बताते हैं कि पत्नी अर्द्धांगिनी होती है। यदि आपको वनवास की आज्ञा मिली है तो इसका अर्थ है कि मुझे भी वनवास की आज्ञा मिली है। कोई विधान नहीं कहता कि पुरुष का आधा अंग वन में रहे और आधा अंग घर में। हे नाथ! स्त्री की गति तो उसके पति के साथ ही होती है, इसलिये मैं भी आपके साथ वन चलूँगी। आपके साथ रहकर वहाँ मैं आपके चरणों के सेवा करके अपना कर्तव्य निबाहूँगी। पति की सेवा करके पत्नी को जो अपूर्व सुख प्राप्त होता है है वह सुख लोक और परलोक के सभी सुखों से बड़ा होता है। पत्नी के लिये पति ही परमेश्वर होता है। यदि आप कन्द-मूल-फलादि से अपनी उदर पूर्ति करेंगे तो मैं भी अपनी क्षुधा वैसे ही शांत करूँगी। आपसे अलग होकर स्वर्ग का सुख-वैभव भी मैं स्वीकार नहीं कर सकती। यदि आप मेरी इस विनय और प्रार्थना की उपेक्षा करके मुझे अयोध्या में छोड़ जायेंगे आपके वन के लिये प्रस्थान करते ही मैं अपना प्राणत्याग दूँगी। यही मेरी प्रतिज्ञा है।"

राम को वन में होने वाले कष्टों को ध्यान था इसीलिए वे अपने साथ सीता को वन में नहीं ले जाना चाहते थे। वे उन्हें समझाने का प्रयत्न करने लगे किन्तु जितना वे प्रयत्न करते थे सीता का हठ उतना ही बढ़ते जाता था। किसी भी प्रकार से समझाने बुझाने का प्रयास करने पर वे अनेक प्रकार के शास्त्र सम्मत तर्क करने लगतीं और उनके प्रयास को विफल करती जातीं। जनकनन्दिनी की इस दृढ़ता के समक्ष राम का प्रत्येक प्रयास असफल हो गया और अन्त में उन्हें सीता को अपने साथ वन ले जाने की आज्ञा देने के लिये विवश होना पड़ा।

सीता की तरह ही लक्ष्मण ने भी राम के साथ वन में जाने के लिये बहुत अनुग्रह किया। राम ने बहुत प्रकार से समझाया किन्तु लक्ष्मण उनके साथ जाने के विचार पर दृढ़ रहे। परिणामस्वरूप राम को लक्ष्मण की दृढ़ता, स्नेह तथा अनुग्रह के सामने भी झुकना पड़ा और लक्ष्मण को भी साथ जाने की अनुमति देनी ही पड़ी।

सीता और लक्ष्मण ने कौशल्या तथा सुमित्रा दोनों माताओं से आज्ञा लेने बाद, अनुनय विनय करके महाराज दशरथ से भी वन जाने की अनुमति देने के लिये मना लिया। इतना करने के पश्चात् लक्ष्मण शीघ्र आचार्य के पास पहुँचे और उनसे समस्त अस्त्र-शस्त्रादि लेकर राम के पास उपस्थित हो गये। लक्ष्मण के आने पर राम ने कहा, "हे सौमित्र! वन के लिये प्रस्थान करने के पूर्व मैं अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति ब्राह्मणों, दास दासियों तथा याचकों में वितरित करना चाहता हूँ इसलिये तुम गुरु वशिष्ठ के ज्येष्ठ पुत्र को बुला लाओ।"

4 टिप्पणियाँ:

Dr. Shreesh K. Pathak October 25, 2009 at 2:22 PM  

जो तर्क माँ सीता ने श्रीराम को दिए उन्हीं तर्कों से उर्मिला का भी तो वन जाकर लक्ष्मण की सेवा करना बनता था..?

स्वप्न मञ्जूषा October 28, 2009 at 5:06 PM  

हा. एकदम हम यही बात पूछने आये थे...उर्मिला ने ऐसा क्यूँ नहीं किया ??

Unknown October 28, 2009 at 5:25 PM  

"जो तर्क माँ सीता ने श्रीराम को दिए उन्हीं तर्कों से उर्मिला का भी तो वन जाकर लक्ष्मण की सेवा करना बनता था..?"

"हा. एकदम हम यही बात पूछने आये थे...उर्मिला ने ऐसा क्यूँ नहीं किया ??"


यह बात तो मुझे भी खटकती है। वाल्मीकि रामायण में कहीं पर भी इस सन्दर्भ में कुछ नहीं मिलता। ऐसा प्रतीत होता है कि लक्ष्मण ने शीघ्रता में उर्मिला से बिना मिले ही वन के लिये प्रस्थान कर दिया।

जो भी हो, पूरे वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस में उर्मिला के साथ अन्याय ही हुआ है। यह हमारे महान काव्यकारों की बहुत बड़ी गलती है और हमारे युग के रामभक्त कवि श्री मैथिलीशरण गुप्त जी ने साकेत की रचना करके इस गलती को सुधारने का प्रयास किया है।

Rakesh Singh - राकेश सिंह October 30, 2009 at 1:01 AM  

मैंने कहीं पढा था की रामभक्त कवि श्री मैथिलीशरण गुप्त जी की किसी ने ये कहा की रामचरितमानस तुलसीदास ने में उर्मिला के साथ अन्याय किया था वो आपने पूरी कर दी |

गुप्त जी ने प्रेम भाव से उन्हें समझाया की इतना बड़ा ग्रन्थ लिखते समय कुछ-कुछ बातें छुट जाया करती हैं ... और गुप्त जी ने बाल्मीकि या तुलसीदास को उर्मिला के सन्दर्भ मैं कहीं गलत नहीं बताया है |

मैं प्रमाण देने मैं असमर्थ हूँ की गुप्त जी ने ये सारी बातें कहाँ कही ... चचा आप को इस सन्दर्भ मैं कुछ पता हो तो हमारा मार्ग दर्शन कीजिये |

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