श्रवणकुमार की कथा - अयोध्याकाण्ड (19)

>> Friday, October 30, 2009

महाराज दशरथ ने कहा, "कौशल्ये! यह मेरे विवाह से पूर्व की घटना है। एक दिन सन्ध्या के समय अकस्मात मैं धनुष बाण ले रथ पर सवार हो शिकार के लिये निकल पड़ा। जब मैं सरयू के तट के साथ-साथ रथ में जा रहा था तो मुझे ऐसा शब्द सुनाई पड़ा मानो वन्य हाथी गरज रहा हो। उस हाथी को मारने के लिये मैंने तीक्ष्ण शब्दभेदी बाण छोड़ दिया। बाण के लक्ष्य पर लगते ही किसी जल में गिरते हुए मनुष्य के मुख से ये शब्द निकले - 'आह, मैं मरा! मुझ निरपराध को किसने मारा? हे पिता! हे माता! अब मेरी मृत्यु के पश्चात् तुम लोगों की भी मृत्यु, जल के बिना प्यासे ही तड़प-तड़प कर, हो जायेगी। न जाने किस पापी ने बाण मार कर मेरी और मेरे माता-पिता की हत्या कर डाली।'

"इससे मुझे ज्ञात हुआ कि हाथी की गरज सुनना मेरा भ्रम था, वास्तव में वह शब्द जल में डूबते हुये घड़े का था।

"उन वचनों को सुन कर मेरे हाथ काँपने लगे और मेरे हाथों से धनुष भूमि पर गिर पड़ा। दौड़ता हुआ मैं वहाँ पर पहुँचा जहाँ पर वह मनुष्य था। मैंने देखा कि एक वनवासी युवक रक्तरंजित पड़ा है और पास ही एक औंधा घड़ा जल में पड़ा है। मुझे देखकर क्रुद्ध स्वर में वह बोला - 'राजन! मेरा क्या अपराध था जिसके लिये आपने मेरा वध करके मुझे दण्ड दिया है? क्या यही मेरा अपराध यही है कि मैं अपने प्यासे वृद्ध माता-पिता के लिये जल लेने आया था? यदि आपके हृदय में किंचित मात्र भी दया है तो मेरे प्यासे माता-पिता को जल पिला दो जो निकट ही मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। किन्तु पहले इस बाण को मेरे कलेजे से निकालो जिसकी पीड़ा से मैं तड़प रहा हूँ। यद्यपि मैं वनवासी हूँ किन्तु फिर भी ब्राह्मण नहीं हूँ। मेरे पिता वैश्य और मेरी माता शूद्र है। इसलिये मेरी मृत्यु से तुम्हें ब्रह्महत्या का पाप नहीं लगेगा।'

"मेरे द्वारा उसके हृदय से बाण खींचते ही उसने प्राण त्याग दिये। अपने इस कृत्य से मेरा हृदय पश्चाताप से भर उठा। घड़े में जल भर कर मैं उसके माता पिता के पास पहुँचा। मैंने देखा, वे दोनों अत्यन्त दुर्बल और नेत्रहीन थे। उनकी दशा देख कर मेरा हृदय और भी विदीर्ण हो गया। मेरी आहट पाते ही वे बोले - 'बेटा श्रवण! इतनी देर कहाँ लगाई? पहले अपनी माता को पानी पिला दो क्योंकि वह प्यास से अत्यंत व्याकुल हो रही है।'

"श्रवण के पिता के वचनों को सुन कर मैंने डरते-डरते कहा - 'हे मुने! मैं अयोध्या का राजा दशरथ हूं। मैंने, अंधकार के कारण, हाथी के भ्रम में तुम्हारे निरपराध पुत्र की हत्या कर दी है। अज्ञानवश किये गये अपने इस अपराध से मैं अत्यंत व्यथित हूँ। आप मुझे दण्ड दीजिये।'

"पुत्र की मृत्यु का समाचार सुन कर दोनों विलाप करते हुये कहने लगे - 'मन तो करता है कि मैं अभी शाप देकर तुम्हें भस्म कर दूँ और तुम्हारे सिर के सात टुकड़े कर दूँ। किन्तु तुमने स्वयं आकर अपना अपराध स्वीकार किया है, अतः मैं ऐसा नहीं करूँगा। अब तुम हमें हमारे श्रवण के पास ले चलो।' श्रवण के पास पहुँचने पर वे उसके मृत शरीर को हाथ से टटोलते हुये हृदय-विदारक विलाप करने लगे। अपने पुत्र को उन्होंने जलांजलि दिया और उसके पश्चात् वे मुझसे बोले - 'हे राजन्! जिस प्रकार पुत्र वियोग में हमारी मृत्यु हो रही है, उसी प्रकार तुम्हारी मृत्यु भी पुत्र वियोग में घोर कष्ट उठा कर होगी। शाप देने के पश्चात् उन्होंने अपने पुत्र की चिता बनाई और पुत्र के साथ वे दोनों स्वयं भी चिता में बैठ जल कर भस्म हो गये।'

"कौशल्ये! मेरे उस पाप कर्म का दण्ड आज मुझे प्राप्त हो रहा है।"

20 टिप्पणियाँ:

Unknown October 30, 2009 at 7:42 PM  

बड़ा हृदय विदारक वृत्तान्त .............

दादा, मन पसीज गया...

जय हो आपकी !

Mishra Pankaj October 30, 2009 at 11:06 PM  

बहुत सुन्दर काण्ड

Ashish Shrivastava October 31, 2009 at 12:16 PM  

"यद्यपि मैं वनवासी हूँ किन्तु फिर भी ब्राह्मण नहीं हूँ। मेरे पिता वैश्य और मेरी माता शूद्र है !"

इसका मतलब यह है कि एक वैश्य ने एक क्षत्रीय को श्राप दिया, वह भी फलित हुआ! यह हुआ त्रेता युग मे ! शूद्र माता ! शूद्र माता वह भी तिर्थ यात्रा पर ! शूद्र तिर्थ कर सकते थे !
तब यह जाति भेद कब आया ? समाज इतना सँकूचित कब हुआ ! मेरा विश्वास पक्का होता जा रहा है कि प्राचिन भारत या सनातन धर्म मे छुआ छूत नही था, हाँ कुछ जाति जैसे चाँडाल समाज मे वर्जित जरूर थी !

वाल्मिकी थे निम्न जाति से थे, लेकिन ब्राम्हण(ऋषी) बन गये थे ! सम्मानित और पूजनिय बने ! वेदो का ज्ञान तो अवश्य होगा ही ! अर्थ यही कि ज्ञान अर्जन पर भी जाति की रोक टोक नही थी !
लेकिन यह बूराई सनातन धर्म मे कब और कैसे आयी ?

Unknown October 31, 2009 at 12:26 PM  

जहाँ तक मैं समझता हूँ कि प्राचीनकाल में भारतवर्ष में वर्णप्रथा ही थी और व्यक्ति के वर्ण का आधार व्यक्ति के कर्म हुआ करता था। वीरतापूर्वक लोगों की रक्षा करने वाले क्षत्रिय वर्ण में आते थे, ज्ञानी लोग ब्राह्मण वर्ग में और व्यापार करने वाले वैश्य वर्ण में आते थे। जिन लोगों में कुछ विशेष योग्यता नहीं रह पाती थी वे शूद्र वर्ण में आते थे। कर्म के अनुसार एक ही व्यक्ति का वर्ण भी बदल जाया करता था जैसे कि विश्वामित्र क्षत्रिय से ब्राह्मण हो गये क्योंकि पहले वे राजा बन कर क्षत्रिय कर्म किया करते थै किन्तु बाद में उन्होंने ज्ञानार्जन करके ज्ञान सिखाने का कर्म आरम्भ कर दिया। इसी प्रकार से राजा हरिश्चन्द्र क्षत्रिय थे किन्तु आपत्तिकाल में उन्होंने डोम का दास बनकर क्षत्रियवृति के स्थान पर चाण्डालवृति (शूद्रवृति) की थी।

कालान्तर में ब्राह्मणों, जिनको कि सर्वोच्च वर्ण माना जाता था, ने स्वार्थवश वर्णप्रथा को जातिप्रथा में परिणित कर दिया और जाति के अनुसार कर्म का नियम बना दिया। पहले कर्म के आधार पर व्यक्ति के वर्ण का निर्धारण होता था पर बाद में जाति के अनुसार व्यक्ति के कर्म का निर्धारण होने लग गया।

स्वप्न मञ्जूषा November 3, 2009 at 3:04 AM  

हाँ बिकुल ठीक पहले समाज कर्मप्रधान ही हुआ करता था.....और ऐसा हरगिज नहीं था कि ब्रह्मण का पुत्र ब्रह्मण हो...अगर व योग्य होता था तभी वह ब्रह्मण कहलाता था...
बहुत ही मार्मिक कथा भईया.....

Rakesh Singh - राकेश सिंह November 6, 2009 at 11:06 AM  

विश्वामित्र, राजा हरिश्चंद्र, बाल्मीकि आदि का वर्ण परीवर्तन इसी और इशारा करती है की प्राचीनकाल में भारतवर्ष में वर्णप्रथा ही थी और व्यक्ति के वर्ण का आधार व्यक्ति के कर्म हुआ करता था।

Unknown April 23, 2017 at 8:49 PM  

*आप लोगों ने श्रवण कुमार का नाम तो सुना ही होगा*
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श्रवण कुमार के माता-पिता अंधे थे। श्रवण कुमार अत्यंत श्रद्धापूर्वक उनकी सेवा करते थे। एक बार उनके माता-पिता की इच्छा *तीर्थयात्रा* करने की हुई। श्रवण कुमार ने कांवर बनाई और उसमें दोनों को बैठाकर कंधे पर उठाए हुए यात्रा करने लगे।
एक दिन वे अयोध्या के समीप वन में पहुंचे। वहां रात्रि के समय माता-पिता को प्यास लगी। श्रवण कुमार पानी के लिए अपना तुंबा लेकर सरयू तट पर गए।
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अयोध्या के राजा *दशरथ* को शिकार खेलने का शौक था। वे भी जंगल में शिकार खेलने आए हुए थे। श्रवण ने जल भरने के लिए कमंडल को पानी में डुबोया। बर्तन मे पानी भरने की अवाज़ सुनकर राजा दशरथ को लगा कोई जानवर पानी पानी पीने आया है। राजा दशरथ आवाज सुनकर, अचूक निशाना लगा सकते थे। आवाज के आधार पर उन्होंने तीर मारा। तीर सीधा श्रवण के सीने में जा लगा। श्रवण के मॅुंह से ‘आह’ निकल गई।
राजा जब शिकार को लेने पहॅुंचे तो उन्हें अपनी भूल मालूम हुई। अनजाने में उनसे इतना बड़ा अपराध हो गया। उन्होंने श्रवण से क्षमा माँगी।
कहा जाता है कि राजा दशरथ ने बूढ़े माँ-बाप से उनके बेटे को छीना था। इसीलिए राजा दशरथ को भी *पुत्र वियोग* सहना पड़ा रामचंद्र जी 14 साल के लिए वनवास को गए। राजा दशरथ यह वियोग नहीं सह पाए। इसीलिए उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए।

*विश्लेषण :*

*आदि शंकराचार्य* नें भारत के चार दिशाओं में *चार धामों* की स्थापना की। उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम, पूरब में जगन्नाथपुरी एवं पश्चिम में द्वारका - हिन्दुओं के चार धाम हैं। पूर्व में हिन्दू इन धामों की यात्रा करना अपना पवित्र कर्तव्य मानते थे। कालान्तर में हिन्दुओं के नये तीर्थ आते गये हैं।
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हिंदुओं की तीर्थयात्रा में चार धाम का जिक्र पहले आता है –
1) रामेश्वरम
2) बद्रीनाथ धाम
3) द्वारका धाम
4) जगन्नाथ पुरी
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*प्रश्न* : इन चारधामों की स्थापना किसने की थी?
उत्तर : शंकराचार्य ने
*प्रश्न* : शंकराचार्य कब पैदा हुए थे?
उत्तर : *8वीं शताब्दी* में (788 to 820) (मतलब अब से लगभग 1100-1200 वर्ष पहले)
*प्रश्न* : जब शंकराचार्य पैदा ही 1100-1200 वर्ष पहले हुए थे, तो ये तीर्थस्थल/चारधाम, *त्रेतायुग* में कैसे आ गए?
शंकराचार्य हुए 1100-1200 साल पहले और उसने चारधाम की स्थापना की, तो फिर श्रवण कुमार अपने माता-पिता को कहाँ की यात्रा करवा रहा था?
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मुझे लगता है कि जैसे राम ने एक शूद्र शंबूक की हत्या की, वैसे ही दशरथ ने भी एक शूद्र श्रवण कुमार की हत्या की। लेकिन श्रवण कुमार के संबंध में कहानी कुछ और ही जोड़ दी गयी। कहानियाँ लिखने में ब्राह्मणों का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता।

Unknown May 7, 2017 at 8:51 AM  

श्रवण के माता-पिता की पुत्र-वियोग से मृत्यु और राजा दशरथ की पुत्र राम के वियोग से मृत्यु कर्म के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है।राजा दशरथ द्वारा किए गए कर्म का ही फल आगे चलकर (भविष्य में)उसे भोगना पड़ा।

Unknown August 21, 2017 at 12:07 PM  

सरवन कुमार के माता पिता अन्धे कैसे हुवे थे

Unknown April 7, 2018 at 12:17 AM  

शङ्कराचार्य ने इन चार धामों की स्थापना नहीं की। अपितु, चार पीठों की स्थापना के लिए इन चार धामों को चुना।

Unknown July 14, 2018 at 1:30 AM  

धर्म ग्रंथ मे कहीं भी नहीं लीखा हुआ है की
श्रवण कुमार अपने माता पिता को तीर्थयात्रा
कराने हिंदुओं के चार धाम :-
1) रामेश्वरम
2) बद्रीनाथ धाम
3) द्वारका धाम
4) जगन्नाथ पुरी
लेजा रहा था।

Note :- वह अपने माता-पिता को प्रयाग, काशी आदि, तीर्थयात्रा कराने ले जा रहा था।

Unknown August 22, 2018 at 8:11 AM  

Shravan ke mata pita ne tirthayatra ki kaha tha na ki chardham yatra ki. Waise bhi pauranik chardham gngotri yamunotri badrinath aur kedarnath mane jate hai. Jo shankaracharya ke janm se aur ramchandra ji ke janm se kafi pahle hai.

Unknown October 16, 2018 at 4:19 PM  

श्रवणकुमार कहां का रहने वाला था
स्थान का नाम बतायें

Unknown December 27, 2018 at 9:38 PM  

Sarwan kumar ka janam kaha huaa tha

Unknown March 18, 2019 at 6:52 PM  

श्रवण कुमार की पत्नी किस राज्य से थी

Unknown March 1, 2020 at 2:18 PM  

Ek baar ki baat thi narad Muni shantanu aur aur gyanwati ke samne prakat hue aur unhen teen aashirwad Diya saubhagyavati bhava teesra aashirwad putravati bhav tu shravan ke Mata pita ne kahan ki kya aapka aashirwad Sach hoga tab unhone bataya ki avashya aashirwad Sach hoga dono ko kaha ki jao jungle mein bhagwan Brahma ki tapasya karo tab bhagwan vah Gaye tapasya karne ke liye to bhagwan Brahma prakat hue aur unhen putravati ho vardan Diya aur kaha ki aap ko putra hone se aapki Jyoti chali jayegi aankh ki Jyoti chali jayegi unhone kaha ki theek hai koi baat nahi yah to Koi nahin kahega ki napunsak the to bhagwan Brahma ne kaha ki aapki putra ka Yugo Yugo Tak naam rahega iske karya per pura vishwas chalega tab jab shravan Kumar ka janm hua tha unke Mata pita ne unka naam shravan rakha aur unki gatha ugo ugo Tak chalti rahegi

Unknown April 1, 2020 at 11:47 PM  

I don't follow Later vedic age . We r one only one

Sandeep Sharma May 7, 2020 at 7:04 AM  

यह सत्य है कि जातिवाद का कहि स्थान नहीं था लेकिन सत्यवादी हरिश्चंद्र को उनकी पत्नी ने नीच जाति के यहां काम करने के कारण घड़ा नहीं उठवाया था और हरिश्चन्द्र रामजी के पूर्वज थे

Sandeep Sharma May 7, 2020 at 7:10 AM  

आपत्तिकाल में उन्होंने डोम का दास बनकर क्षत्रियवृति के स्थान पर चाण्डालवृति (शूद्रवृति) की थी। जिस कारण ब्राह्मण के यहां काम करने की वजह से उनकी पत्नी ने घड़ा उठवाने से मना कर दिया था

Unknown October 11, 2021 at 4:16 PM  

तुम्हारी दादी का मायका कहां था मालूम है

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