वन की यात्रा - अयोध्याकाण्ड (12)

>> Tuesday, October 27, 2009

तमसा नदी को पार करने के पश्चात् रथ तीव्र गति से बढ़ने लगा। द्रुत गति से दौड़ता हुआ रथ निर्मल जल से युक्त वेदश्रुति नामक नदी के तट पर जा पहुँचा। वेदश्रुति नदी को पार कर रथ दक्षिण दिशा की ओर बढ़ता गया। वे उस स्थान में पहुँच गए जहाँ समुद्रगामिनी गोमती नदी प्रवाहित हो रही थी। सरिता के दोनों तटों पर सहस्त्रों गौओं के झुंड हरी-हरी घास चर रही थीं। गोमती नदी को लांघ कर रथ ने मोरों और हंसों के कलरवों से व्याप्त स्यन्दिका नामक नदी को भी पार किया। यह क्षेत्र धन-धान्य से सम्पन्न और अनेक जनपदों से घिरा हुआ था। राम ने सीता को बताया कि पूर्वकाल में इस क्षेत्र को राजा मनु ने इक्ष्वाकु को दिया था।

शीघ्रगामी अश्वों ने रथ को विशाल और रमणीय कोसल देश की सीमा तक पहुचा दिया। सीमा के पार होते ही राम रथ से नीचे उतरे और अयोध्या की ओर मुख कर श्रद्धापूर्ण वचनों में कहने लगे, "सूर्यकुल के सत्यवादी नरेशों द्वारा स्नेहपूर्वक परिपालित हे अयोध्या नगरी! विवश होकर आज मुझे तुझसे दीर्घकाल के लिये विलग होना पड़ रहा है। हे जन्मभूमि! मेरी दृष्टि में तुम सदैव स्वर्ग से भी अधिक श्रद्धेय और पूजनीय रही हो। तुम्हारी सेवा मेरा गौरव है किन्तु परिस्थितिवश मुझे आज तुम्हारी सेवा से विमुख होना पड़ रहा है। हे जननी! तुम सदैव मेरे लिये प्रेरणामयी रही हो। तुम्हारी धूलि मुझे चन्दन की भाँति शान्ति देती है, तुम्हारा जल मेरे लिये अमृतमयी और जीवनदायी है। तुमसे विदा लेते हुये मेरा हृदय विदीर्ण हुआ जा रहा है। पिताजी की आज्ञा का पालन करके चौदह वर्ष पश्चात् मैं पुनः तुम्हारा दर्शन तथा तुम्हारी सेवा का सौभाग्य प्राप्त करूँगा। तब तक के लिये हे माता! मुझे विदा दो। हे माता! तुम्हें शतशत प्रणाम! कोटि कोटि प्रणाम!!"

इतना कह कर राम ने अयोध्या प्रदेश की धूलि को मस्तक से लगा लिया। उनके नेत्र अश्रुपूरित हो गये किन्तु प्रयास करके उन्होंने अपनी भावनाओं को नियंत्रित किया और पुनः रथ पर बैठ गये। रथासीन हो जाने के पश्चात् वे लक्ष्मण एवं सीता को मातृभूमि की गरिमा एवं महत्व के विषय में बताने लगे।

वे कलुषनाशिनी परम पावन भागीरथी गंगा के तट पर पहुँच गये। उस सुरम्य वातावरण में वे बहुत देर तक चकित से खड़े रहे। उन्होंने देखा दूर-दूर तक लहलहाते हुए खेत नेत्रों को सुख देने वाली हरीतिमा बिखेर रहे हैं। वातावरण अत्यंत सुरम्य है। स्वर्णकलशों से सुशोभित धवल मंदिर भक्ति की भावना को जागृत कर रहे हैं। वहाँ के समस्त आश्रम साम गान की ध्वनि गुंजायमान हो रहे है। वायुमण्डल हवन कुण्डों से निकलने वाले धुएँ से सुगन्धित हो रहा है। अनन्य काल से ऋषि-मुनियों द्वारा सेवित पवित्र भागीरथी कल-कल नाद के साथ द्रुत गति से प्रवाहित हो रही है। गंगा के जल में हंस, कारण्डव आदि पक्षी विहार करते हुये मधुर स्वर में गा रहे हैं मानों वे गंगा की स्तुति कर रहे हों। त्रिपथगा पुण्यसलिला गंगा के दोनों तटों पर खड़े वृक्ष रंग-बिरंगे पुष्पों से सुसज्जित हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वे अपने फूलों का अर्ध्य चढ़ाकर गंगा का अभिषेक कर रहे हैं।

वे इस मनोमुग्धकारी छवि निहारने में लीन हो गये। कुछ काल के पश्चात् राम सुमन्त से बोले, "मन्त्रिवर! आज हम यहीं विश्राम करेंगे। हंगुदी के उस विशाल वृक्ष पर कितने सुन्दर तथा आकर्षक फल लगे हुये हैं! आज हम इन्हीं फलों का आहार करेंगे और रात्रि भी यहीं पर व्यतीत करेंगे।"

रामचन्द्र का आदेश पाते ही सुमन्त ने रथ को हंगुदी के वृक्ष के नीचे खड़ा कर दिया और अश्वों को निकट ही हरी-हरी घास चरने के लिये छोड़ दिया।

5 टिप्पणियाँ:

Unknown October 27, 2009 at 5:55 PM  

अत्यन्त निर्मल आनन्द आ रहा है..........

बहुत थोडा सा माल छापते हो जी.....थोडा सा लम्बादो तो और मज़ा आये.........

वैसे माल आपका है ,आप चाहे जैसा करें.........हमें तो आनन्द लेने से मतलब है.......

________अभिनन्दन आपका इस पवित्र श्रृंखला के लिए

Arvind Mishra October 27, 2009 at 6:12 PM  

नदी स्यन्दिका है या स्वन्दिका ?

Unknown October 27, 2009 at 6:17 PM  

मिश्रा जी,

धन्यवाद त्रुटि बताने के लिए! नदी स्यन्दिका ही है टायपिंग की त्रुटि के कारण स्वन्दिका प्रकाशित हो गया। अब सुधार दिया गया है।

स्वप्न मञ्जूषा October 28, 2009 at 5:35 PM  

वास्तव में बहुत ही मनोरम दृश्य रहा होगा....हम तो बस कल्पना ही कर रहे हैं...
आपने वर्णन इतना सजीव किया है कि कल्पना करने में कोई परेशानी नहीं होती..
और श्री राम के मनोभावों को ह्रदय से महसूस कर रही हूँ...अपनी धरती छोड़ने का दुःख क्या होता है मुझसे कोई पूछे....!!
सच भईया आपके इस कार्य के लिए जितना भी मैं आभार व्यक्त करूँ कम ही होगा...

Rakesh Singh - राकेश सिंह November 5, 2009 at 11:30 AM  

श्री राम का मातृभूमि प्रेम ... सुन्दर

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