राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म - बालकाण्ड (2)

>> Monday, October 12, 2009

कथा शुरू करने के पहले कुछ बातें:-

मैंने सोचा भी नहीं था कि ये "संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण" इतने सारे लोगों को भायेगी और इतनी सारी टिप्पणियाँ मिलेंगी। सभी लोगों को मेरा धन्यवाद! ब्लॉगवाणी का भी मैं बहुत आभारी हूँ जिन्होंने इस "संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण" को इतनी जल्दी रजिस्टर कर लिया। मैंने तो सोचा था कि कम से कम चौबीस घंटे तो लगेंगे ही इसे एग्रीगेटर में आने के लिए किन्तु चौबीस मिनट भी नहीं लगे। क्योंकि मैंने सोचा था कि एग्रीगेटर में आने में इसे देर लगेगी, मैंने इसका प्रचार सबसे पहले अलबेला जी के पोस्ट में अपनी टिप्पणी के रूप में की और उन्होंने उसे अपने ब्लॉग में स्थान देने के साथ ही साथ सबसे पहले यहाँ आकर टिप्पणी भी की। अदा जी के पोस्ट में भी मैंने अपनी टिप्पणी में इसका उल्लेख किया और उन्होंने भी मेरे साथ पूर्ण सहयोग किया।

बन्धुओं, वाल्मीकि रामायण एक वृहत् महाकाव्य है। इसके सात काण्डों में चौबीस हजार श्लोक हैं। कथा के भीतर कथा है। मैं संक्षेप में मूलकथा को लेकर ही चलूँगा। कुछ लोगों का आग्रह है कि श्लोक भी उद्धरित करूँ पर मैं समझता हूँ कि बीच बीच में श्लोक डालने से बहुत से लोग, जो कि कथा पसंद करते हैं, शायद ऊबने लगेंगे। प्रयास यही रहेगा कि मूलकथा पूरी तरह से समाहित हो जाए और अधिक से अधिक जानकारी का भी इसमें समावेश हो। लोगों की रुचि बढ़ी तो फिर सम्पूर्ण वाल्मीकि रामायण की श्रृंखला भी आरम्भ करेंगे जिसमें वाल्मीकि रामायण के समस्त श्लोक अर्थ सहित होंगे।

कल मैंने कथा को संक्षिप्त करने के लिए सीधे वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के पाँचवे सर्ग से ही आरम्भ किया था क्योंकि पहले चार सर्गों में भूमिका ही है अर्थात् देवर्षि नारद जी का ऋषि वाल्मीकि को रामायण की रचना के लिए प्रेरणा देना, बहेलिए के द्वारा क्रौंचवध और वाल्मीकि के हृदय में करुणा का उदित होना आदि आदि।



यह भी बताना उचित होगा कि तुलसीदास जी ने श्री राम को ईश्वर मान कर रामचरितमानस की रचना की है किन्तु आदिकवि वाल्मीकि ने अपने रामायण में श्री राम को मनुष्य ही माना है और जहाँ तुलसीदास जी ने रामचरितमानस को राम के राज्यभिषेक के बाद समाप्त कर दिया है वहीं आदिकवि श्री वाल्मीकि ने अपने रामायण में कथा को आगे श्री राम के महाप्रयाण तक वर्णित किया है।

तो अब आगे की कथाः

मन्त्रीगणों तथा सेवकों ने महाराज की आज्ञानुसार श्यामकर्ण घोड़ा चतुरंगिनी सेना के साथ छुड़वा दिया। महाराज दशरथ ने देश देशान्तर के मनस्वी, तपस्वी, विद्वान ऋषि-मुनियों तथा वेदविज्ञ प्रकाण्ड पण्डितों को यज्ञ सम्पन्न कराने के लिये बुलावा भेज दिया। निश्‍चित समय आने पर समस्त अभ्यागतों के साथ महाराज दशरथ अपने गुरु वशिष्ठ जी तथा अपने परम मित्र अंग देश के अधिपति लोभपाद के जामाता ऋंग ऋषि को लेकर यज्ञ मण्डप में पधारे। इस प्रकार महान यज्ञ का विधिवत शुभारम्भ किया गया। सम्पूर्ण वातावरण वेदों की ऋचाओं के उच्च स्वर में पाठ से गूँजने तथा समिधा की सुगन्ध से महकने लगा।

समस्त पण्डितों, ब्राह्मणों, ऋषियों आदि को यथोचित धन-धान्य, गौ आदि भेंट कर के सादर विदा करने के साथ यज्ञ की समाप्ति हुई। राजा दशरथ ने यज्ञ के प्रसाद चरा को अपने महल में ले जाकर अपनी तीनों रानियों में वितरित कर दिया। प्रसाद ग्रहण करने के परिणामस्वरूप परमपिता परमात्मा की कृपा से तीनों रानियों ने गर्भधारण किया।

जब चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में सूर्य, मंगल शनि, वृहस्पति तथा शुक्र अपने-अपने उच्च स्थानों में विराजमान थे, कर्क लग्न का उदय होते ही महाराज दशरथ की बड़ी रानी कौशल्या के गर्भ से एक शिशु का जन्म हुआ जो कि श्यामवर्ण, अत्यन्त तेजोमय, परम कान्तिवान तथा अद्‍भुत सौन्दर्यशाली था। उस शिशु को देखने वाले ठगे से रह जाते थे। इसके पश्चात् शुभ नक्षत्रों और शुभ घड़ी में महारानी कैकेयी के एक तथा तीसरी रानी सुमित्रा के दो तेजस्वी पुत्रों का जन्म हुआ।

सम्पूर्ण राज्य में आनन्द मनाया जाने लगा। महाराज के चार पुत्रों के जन्म के उल्लास में गन्धर्व गान करने लगे और अप्सरायें नृत्य करने लगीं। देवता अपने विमानों में बैठ कर पुष्प वर्षा करने लगे। महाराज ने उन्मुक्त हस्त से राजद्वार पर आये हुये भाट, चारण तथा आशीर्वाद देने वाले ब्राह्मणों और याचकों को दान दक्षिणा दी। पुरस्कार में प्रजा-जनों को धन-धान्य तथा दरबारियों को रत्न, आभूषण तथा उपाधियाँ प्रदान किया गया। चारों पुत्रों का नामकरण संस्कार महर्षि वशिष्ठ के द्वारा कराया गया तथा उनके नाम रामचन्द्र, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न रखे गये।

आयु बढ़ने के साथ ही साथ रामचन्द्र गुणों में भी अपने भाइयों से आगे बढ़ने तथा प्रजा में अत्यंत लोकप्रिय होने लगे। उनमें अत्यन्त विलक्षण प्रतिभा थी जिसके परिणामस्वरू अल्प काल में ही वे समस्त विषयों में पारंगत हो गये। उन्हें सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को चलाने तथा हाथी, घोड़े एवं सभी प्रकार के वाहनों की सवारी में उन्हें असाधारण निपुणता प्राप्त हो गई। वे निरन्तर माता-पिता और गुरुजनों की सेवा में लगे रहते थे। उनका अनुसरण शेष तीन भाई भी करते थे। गुरुजनों के प्रति जितनी श्रद्धा भक्ति इन चारों भाइयों में थी उतना ही उनमें परस्पर प्रेम और सौहार्द भी था। महाराज दशरथ का हृदय अपने चारों पुत्रों को देख कर गर्व और आनन्द से भर उठता था।

6 टिप्पणियाँ:

Arvind Mishra October 12, 2009 at 2:20 PM  

रोचक कथा -अनुकथन !

दिनेशराय द्विवेदी October 12, 2009 at 5:22 PM  

अवधिया जी इस कथा से बहुत लगाव है। यही है जिसे मैं ने स्कूल में भर्ती होने के पहले माँ से सीखा था और स्कूल में सब बच्चों को बिठा कर सुनाया करता था।

Dr. Shreesh K. Pathak October 12, 2009 at 9:21 PM  

आपके इस कदम से मै सहसा हर्षातिरेक से भर गया....आपको कोटिशः साधुवाद...वैसे आपने इस पर बारम्बार स्पष्टीकरण दिया है पर एक बार फिर निवेदन करूँगा...कि एक-दो श्लोक ही जो बहुत ही महत्वपूर्ण या रोचक हों वो ही देते जाइये...इससे लोगों में मूल रामायण के प्रति रुचि भी बढ़ेगी..और आदिकवि वाल्मीकि के मूल शब्दों का लालित्य भी लोग देख सकेंगे....एक बार फिर से आपके इस गुरुतर प्रयास के लिए अनगिन साभार....

स्वप्न मञ्जूषा October 13, 2009 at 6:50 PM  

आदरणीय अवधिया जी,
सादर प्रणाम,
आपका आभार किन शब्दों में व्यक्त करूँ ?
आपने जो यह कदम उठाया है उसकी प्रशंसा मैं कर नहीं पा रही हूँ..
मुझ जैसे अनगिनत इससे लाभ उठाएंगे और आपको धन्यवाद देंगे...
पुनः आपका आभार....

Rakesh Singh - राकेश सिंह October 15, 2009 at 8:43 AM  

अवधिया जी मैं तो संपूर्ण बाल्मीकि रामायण (श्लोक) के साथ का पक्षधर हूँ | जब तक संपूर्ण रामायण नाहीं आती तब तक संक्षिप्त से ही काम चलाता हूँ |

एक शंका है ... आपने लिखा है "कौशल्या के गर्भ से एक शिशु का जन्म हुआ"... पर सुना तो ऐसा जाता है की "भये प्रकट कृपाला दिन दयाला कौशल्या हितकारी ..." | समय मिले तो शंका निवारण करें|

धन्यवाद

Unknown October 15, 2009 at 9:07 AM  

राकेश सिंह जी,

राम चरितमानस में श्री तुलसीदास जी ने लिखा है "भये प्रकट कृपाला दिन दयाला कौशल्या हितकारी ..." अर्थात् श्रीरामचन्द्र जी प्रकट हुए। तुलसीदास जी ने श्री रामचन्द्र जी को मनुष्य के रूप में भी ईश्वर ही माना है, इसलिए उन्होंने ऐसा लिखा।

किन्तु आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने राम को ईश्वर का अवतार तो माना है किन्तु अपने सम्पूर्ण महाकाव्य अर्थात् रामायण में उन्होंने राम को मनुष्य के रूप में ईश्वर नहीं वरन मनुष्य ही चित्रित किया है। राम के जन्म वाले श्लोक में वे लिखते हैं:

प्रोद्यमाने जगन्नाथं सर्वलोकनमस्कृतम्।
कौसल्याजनयद् रामं दिव्यलक्षणसंयुतम्॥


अर्थात् कौसल्या ने दिव्य लक्षणों से युक्त, सर्वलोकवन्दित जगदीश्वर श्रीराम को जन्म दिया।

(गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण, प्रथम खण्ड, अष्टादशः सर्गः श्लोक 10 का अंश।)

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