अहल्या की कथा - बालकाण्ड (13)

>> Friday, October 16, 2009

एक दिन गौतम ऋषि की अनुपस्थिति में इन्द्र ने गौतम के वेश में आकर अहल्या से प्रणय-याचना की। यद्यपि अहल्या ने इन्द्र को पहचान लिया था तो भी यह सोचकर कि मैं इतनी सौन्दर्यशाली हूँ कि देवराज इन्द्र स्वयं मुझ से प्रणय-याचना कर रहे हैं, अपनी स्वीकृति दे दी।
प्रातःकाल राम और लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र के साथ मिथिलापुरी के वन उपवन आदि देखने के लिये निकले। एक उपवन में उन्होंने एक निर्जन स्थान देखा। राम बोले, "गुरुदेव! यह स्थान देखने में तो आश्रम जैसा दिखाई देता है किन्तु क्या कारण है कि यहाँ कोई ऋषि या मुनि दृष्टिगोचर नहीं हो रहे हैं?"

इस पर विश्वामित्र जी ने कहा, "यह स्थान कभी महात्मा गौतम का आश्रम था। वे अपनी पत्नी अहल्या के साथ यहाँ रह कर तपस्या करते थे। एक दिन गौतम ऋषि की अनुपस्थिति में इन्द्र ने गौतम के वेश में आकर अहल्या से प्रणय-याचना की। यद्यपि अहल्या ने इन्द्र को पहचान लिया था तो भी यह सोचकर कि मैं इतनी सौन्दर्यशाली हूँ कि देवराज इन्द्र स्वयं मुझ से प्रणय-याचना कर रहे हैं, अपनी स्वीकृति दे दी। जब इन्द्र अपने लोक लौट रहे थे तभी अपने आश्रम को वापस आते हुये गौतम ऋषि की दृष्टि इन्द्र पर पड़ी। उस समय इन्द्र उन्हीं का वेश धारण किये हुये था। तत्काल वे सब कुछ समझ गये और उन्होंने इन्द्र को शाप दे दिया। इसके बाद उन्होंने अपनी पत्नी को शाप दिया कि 'रे दुराचारिणी! तू हजारों वर्ष तक केवल हवा पीकर कष्ट उठाती हुई यहाँ राख में पड़ी रहे। जब राम इस वन में प्रवेश करेंगे तभी उनकी कृपा से तेरा उद्धार होगा। तभी तू अपना पूर्व शरीर धारण करके मेरे पास आ सकेगी।' यह कह कर गौतम ऋषि इस आश्रम को छोड़कर हिमालय पर जाकर तपस्या करने चले गये। अतः हे राम! अब तुम आश्रम के अन्दर जाकर अहल्या का उद्धार करो।"

विश्वामित्र जी की आज्ञा पाकर वे दोनों भाई आश्रम के भीतर प्रविष्ट हुये। वहाँ तपस्यारत अहल्या कहीं दिखाई नहीं दे रही थी, केवल उसका तेज सम्पूर्ण वातावरण में व्याप्त हो रहा था। जब अहल्या की दृष्टि राम पर पड़ी तो उनके पवित्र दर्शन पाकर वह एक बार फिर सुन्दर नारी के रूप में दिखाई देने लगी। नारी रूप में अहल्या को सम्मुख पाकर राम और लक्ष्मण ने श्रद्धापूर्वक उनके चरणस्पर्श किये। तत्पश्चात् उससे उचित आदर सत्कार ग्रहण कर वे मुनिराज के साथ पुनः मिथिला पुरी को लौट आये।

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वाल्मीकि रामायण और श्री तुलसीदास जी के रामचरितमानस में अहल्या की कथा मे बहुत सारे अन्तर हैं। जहाँ आदिकवि श्री वाल्मीकि ने अहल्या का शापवश राख में पड़ी रहना बताया है वहीं श्री तुलसीदास जी ने अहल्या का शापवश शिला बन जाना लिखा है।

पाठकों को कुछ और भी सन्देह हो सकते हैं इसलिए मैं निम्न उद्धरण भी देना उचित समझता हूँ

आदिकवि श्री वाल्मीकि रचित रामायण के अष्टचत्वरिंशः सर्गः (48वे सर्ग) के श्‍लोक क्रमांक 17-19 के अनुसार स्पष्ट है कि अहल्या ने इन्द्र को पहचानने के पश्‍चात् ही अपनी स्वीकृति दी थी। देखियेः
तस्यान्तरं विदित्वा च सहस्त्राक्षः शचीपतिः।
मुनिवेषधरो भूत्वा अहल्यामिदमब्रवीत्॥17॥
एक दिन जब महर्षि गौतम आश्रम में नहीं थे तब उपयुक्‍त अवसर जानकर शचीपति इन्द्र मुनिवेष धारण कर वहाँ आये और अहल्या से बोले -
ऋतुकालं प्रतीक्षन्ते नार्थिनः सुसमाहिते।
संगमं त्वहमिच्छामि त्वया सह सुमध्यमे॥18॥
"रति की कामना रखने वाले प्रार्थी पुरुष ऋतुकाल की प्रतीक्षा नहीं करते। हे सुन्दर कटिप्रदेश वाली (सुन्दरी)! मैं तुम्हारे साथ समागम करना चाहता हूँ।"
मुनिवेषं सहस्त्राक्षं विज्ञाय रघुनन्दन।
मतिं चकार दुर्मेधा देवराजकुतुहलात्॥19॥
(इस प्रकार रामचन्द्र जी को कथा सुनाते हुये ऋषि विश्‍वामित्र ने कहा,) "हे रघुनन्दन! मुनिवेष धारण कर आये हुये इन्द्र को पहचान कर भी उस मतिभ्रष्ट दुर्बुद्धि नारी ने कौतूहलवश (कि देवराज इन्द्र मुझसे प्रणययाचना कर रहे हैं) समागम का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

संत श्री तुलसीदास जी के रामचरितमानस के अनुसार अहल्या का उद्धार श्री रामचन्द्र जी के चरणधूलि प्राप्त करने से हुई। देखिये (रामचरितमानस बालकाण्ड दोहा क्रमांक 210 के पूर्व की चौपाई से उसके बाद का छंद):
आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं।।
पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी।।
मार्ग में एक आश्रम दिखाई पड़ा। वहाँ पशु-पक्षी, कोई भी जीव-जन्तु नहीं था। पत्थर की एक शिला को देखकर प्रभु ने पूछा, तब मुनि ने विस्तारपूर्वक सब कथा कही।
दो0-गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।
चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥210॥
गौतम मुनि की स्त्री अहल्या शापवश पत्थर की देह धारण किया बड़े धीरज से आपके चरणकमलों की धूलि चाहती है। हे रघुवीर! इस पर कृपा कीजिये।
छं0-परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही।
देखत रघुनायक जन सुख दायक सनमुख होइ कर जोरि रही।।
श्रीराम के पवित्र और शोक को नाश करनेवाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहल्या प्रकट हो गई। भक्‍तों को सुख देने वाले श्री रघुनाथ जी को देख कर वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी हो गई।

जबकि वाल्मीकि रामायण के इंकावनवें सर्ग के श्‍लोक क्रंमाक 16 के अनुसारः
सा हि गौतमवाक्येन दुनिरीक्ष्या बभूव ह।
त्रयाणामपि लोकानां यावद् रामस्य दर्शनम्।
शापस्यान्तमुपागम्य तेषां दर्शनमागता॥
रामचन्द्र के द्वारा देखे जाने के पूर्व, गौतम के शाप के कारण अहल्या का दर्शन तीनों लोकों के किसी भी प्राणी को होना दुर्लभ था। राम का दर्शन मिल जाने से जब उनके शाप का अन्त हो गया, तब वे उन सबको दिखाई देने लगीं।

6 टिप्पणियाँ:

Dr. Zakir Ali Rajnish October 16, 2009 at 11:07 AM  

स्तुत्य प्रयास।
दीपपर्व की अशेष शुभकामनाएँ।
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आइए हम पर्यावरण और ब्लॉगिंग को भी सुरक्षित बनाएं।

Dr. Shreesh K. Pathak October 16, 2009 at 11:41 AM  

"यद्यपि अहल्या ने इन्द्र को पहचान लिया था तो भी यह सोचकर कि मैं इतनी सौन्दर्यशाली हूँ कि देवराज इन्द्र स्वयं मुझ से प्रणय-याचना कर रहे हैं, अपनी स्वीकृति दे दी।"

......कथा का यह कोण ज्ञात नहीं था....बहुत ही श्रम से आपने रामायण व रामचरित मानस की सुसंगत प्रस्तुति की है, श्लोक रख दिए हैं आपने, विषय की प्रमाणिकता और शिल्प का सौन्दर्य अकस्मात बढ़ गया है..व्यक्तिगत स्तर पर कहूं तो इसे पढ़ लेने के बाद एक अजब सी खुशी भीतर महसूस करता हूँ, मै....

स्वप्न मञ्जूषा October 16, 2009 at 12:30 PM  

अवधिया जी,
प्रणाम,
हर बार आपकी प्रस्तुति पढ़ कर ह्रदय आनंदित हो उठता हैं...
अहिल्या ने इन्द्र को पहचान लिया था और अपनी स्वीकृति दी थी यह तो मुझे मालूम था परन्तु श्रापित होकर वह राख हो गयी यह नहीं मालूम था..हाँ शिला में परिवर्तित हो गयी थी यही पता था....
बहुत बहुत धन्यवाद आपका....आप इतना अच्छा लिखते हैं कि कनाडा में इस समय रात के ३ बज रहे हैं फिर भी हम पढने का लोभ संवरण नहीं कर पाए...
दीपावली की हार्दिक शुभकामना....!!!!

Rakesh Singh - राकेश सिंह October 29, 2009 at 9:06 PM  

अहिल्या की वास्तविक कथा जान कर हर्षित हूँ ... आपने कई शंकाओं का निवारण कर दिया ...

नारी जाती नाहक मैं बिना ग्रन्थ पढ़े ही भगवन राम को अहिल्या सन्दर्भ मैं भी लगत बताते हैं | आपकी ये प्रस्तुति ... उन नारियों की आँखें खोलने के लिए पर्याप्त हैं ...

red basket December 1, 2009 at 11:31 AM  

आपका ब्लॉग पढ़ कर अच्छा लगा| हालाँकि मैं अनुग्रह करता हूँ की एक बार सभी लोग इस कड़ी पर जाकर, एक स्त्री के दृष्टिकोण से अहलया की कहानी का मुआयना करे| चूँकि हमारे शास्त्र और समाज हर इतिहास की पुस्तक की तरह हमेशा से पुरुष प्रधान विचारों से लिप्त रहे है, यह काफ़ी वाजिब है, की इसमे सत्य का सही अंकण नही किया गया हो|

मुझे अहलया की कहानी का दूसरा स्वरूप ज़्यादा स्वीकारित हुआ| आशा करता हूँ आप भी उसे पढ़ कर अपने विचार प्रस्तुत करेंगे.

http://www.boloji.com/women/088.htm

Divik Ramesh October 28, 2012 at 12:25 PM  

मॆंने अपने काव्य -नाटक "खण्ड-खण्ड अग्नि" (वाणी प्रकाशन, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२ से प्रकाशित) में अहल्या द्वारा इन्द्र को पहचाने वाली बात वाल्मीकि रामायण के आधार पर "भूमिका" में लिखी हॆ। इस जानकारी स्त्री-पुरुष संबंधों ऒर उनके द्वारा की गई प्रतिक्रियाओं का एक महत्त्वपूर्ण आयाम सामने आता हॆ जो आज के ’स्त्री-विमर्श’ को समझने में भी सहायक हो सकता हॆ।--दिविक रमेश

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