सुमन्त का अयोध्या लौटना - अयोध्याकाण्ड (18)
>> Friday, October 30, 2009
राम से विदा लेकर सुमन्त पहुँचे। उनहोंने देखा कि पूरे अयोध्या में शोक और उदासी व्याप्त थी। उन्हें आते हुये देखकर अयोध्यावासियों ने दौड़ कर रथ को चारों ओर से घेर लिया और प्रश्नों की बौछार करना आरंभ कर दिया, "राम, लक्ष्मण, सीता कहाँ हैं? तुम उन्हें कहाँ छोड़ आये? अपने साथ वापस क्यों नहीं लाये?"
चाहकर भी सुमन्त उन्हें धैर्य नहीं बँधा पा रहे थे। उनका कण्ठ अवरुद्ध हो गया था। उनके नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। प्रयास करके स्वयं को नियंत्रित किया और लड़खड़ाती वाणी में कहा, "गंगा पार के बाद वे पैदल ही आगे चले गये और उन्होंने आदेशपूर्वक रथ को लौटा दिया।"
सुमन्त के मर्मवेधी वचन सुनकर नगरवासी बिलख-बिलख कर विलाप करने लगे। देखते-देखते सारा बाजार और सभी दुकानें बन्द हो गईं। लोगों ने छोटी-छोटी टोलियाँ बना लिये और शोकाकुल होकर राम के विषय में चर्चा करने लगे। कोई कहता, "राम के बिना अयोध्या सूनी हो गई है। हमें भी यह नगर छोड़ कर अन्यत्र चले जाना चाहिये।" कोई कहता "राम हमसे पिता की भाँति स्नेह करते थे। उनके चले जाने से हम लोग अनाथ हो गये हैं।" अन्य कोई कहता "यह राज्य अब उजड़ गया है। यहाँ रहने का अब कोई अर्थ नहीं है। चलो, हम सब भी वन में चलें।" कोई महाराज दशरथ की निन्दा करता तो कोई रानी कैकेयी को दुर्वचन कहता।
सुमन्त राजप्रासाद के उस श्वेत भवन में जा पहुँचे जहाँ महाराज दशरथ पुत्र वियोग में व्याकुल अर्द्धमूर्छित अवस्था में पड़े अपने अन्तिम श्वासें गिन रहे थे। आशा की कोई धूमिल किरण कभी-कभी चमक उठती थी और उन्हें लगता था कि सम्भव है सुमन्त अनुनय-विनय कर के राम को लौटा लायें। सम्भवतः राम न आयें किन्तु कदाचित सुमन्त सीता को ही वापस ले आयें। उसी समय सुमन्त ने आकर महाराज के चरण स्पर्श किया और विषादपूर्ण स्वर में राम को वन में छोड़ आने की सूचना दी।
सुनते ही व्यथित महाराज मूर्छित हो गये। सम्पूर्ण महल में हाहाकार मच गया। महाराज को झकझोरते हुये कौसल्या ने कहा, "हे आर्यपुत्र! आप चुप कैसे हो गये? बात क्यों नहीं करते? अब तो कैकेयी से की हुई आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो चुकी है फिर आप दुःखी क्यों हैं?"
महाराज की मूर्छा भंग होने पर वे राम, सीता और लक्ष्मण का स्मरण कर के विलाप करने लगे। उन्हे धैर्य बँधाते हुये सुमन्त ने हाथ जोड़कर कहा, "कृपानिधान! राम ने आपको प्रणाम कर के कहा है कि हम सब सकुशल हैं। माता कौसल्या के लिये संदेश दिया है कि वे महाराज की हृदय से सेवा करें और कैकेयी के प्रति हृदय में किसी प्रकार का कलुष न रखें। भरत को भी उन्होंने पिता की आज्ञा का पालन करने का आदेश दिया है।"
महाराज दशरथ ने गहरी साँस छोड़ते हुये कहा, "सुमन्त! होनी को कौन टाल सकता है। इस आयु में मेरे प्रिय पुत्र मुझसे अलग हो गये। इस संसार में इससे बढ़ कर भला क्या दुःख होगा?"
कौसल्या कहने लगी, "राम, लक्ष्मण और विशेषतः सीता, जो सदा सुखपूर्व महलों में रही है, कैसे वन के कष्टों को सहन कर पायेंगे। राजन्! आपने ही उन्हें वनवास दिया है, आप जैसा निर्दयी और कोई नहीं होगा। यह सब आपने केवल कैकेयी और भरत के सुख के लिये किया है।"
कौसल्या के इन कठोर वचनों को सुनकर महाराज का हृदय विदीर्ण हो गया। नेत्रों में अश्रु भरकर वे बोले, "कौशल्ये! तुम तो मुझे इस तरह मत धिक्कारो। मैं तुम्हारे हाथ जोड़ता हूँ।"
दशरथ के इन दीन वचनों को सुनकर कौसल्या का हृदय पानी-पानी हो गया और वे रोने लगीं। फिर दोनों हाथ जोड़कर वे बोलीं, "हे आर्यपुत्र! दुःख ने मेरी बुद्ध को हर लिया था। मुझे क्षमा करें। राम को यहाँ से गये आज पाँच रात्रियाँ व्यतीत हो चुकी हैं किन्तु मुझे ये पाँच रात्रियाँ पाँच वर्षों जैसी प्रतीत हुई हैं। इसीलिये मैं अपना विवेक खो बैठी और ऐसा अनर्गल प्रलाप करने लगी।"
कौसल्या के वचन सुनकर राजा दशरथ ने कहा, "कौशल्ये! जो कुछ भी हुआ है वह सब मेरे ही कर्मों का फल है। सुनो मैं तुम्हें बताता हूँ।"
3 टिप्पणियाँ:
आज पढ़कर मालूम हुआ कि कौसल्या ने भी प्रतिरोध किया था....
बहुत ही मार्मिक ....
आपकी भाषा बहुत ही सरल और रोचक हैं.....
अब ज़रूर दशरथ श्रवणकुमार कि कथा सुनायेंगे......
इस कथा के माध्यम से ज्ञान वृद्धि का सुख ... आनंद ....
मार्मिक वर्णन है।
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