भरत-शत्रुघ्न की वापसी - अयोध्याकाण्ड (21)
>> Saturday, October 31, 2009
गत रात्रि के स्वप्न और इस प्रकार दूतों के आगमन ने भरत के मन में उठने वाले अनिष्ट की आशंका को और प्रबल कर दिया। किन्तु उनके बार बार पूछने पर भी दूतों ने किसी भी अशुभ समाचार के विषय में कुछ नहीं बताया। भरत तथा शत्रुघ्न ने शीघ्रता पूर्वक महाराज कैकेय से विदा लिया और दूतों के साथ अयोध्या की ओर प्रस्थान किया। अनेक नदियों तथा दुर्गम घाटियों को पार करके भरत अयोध्या की सीमा में प्रविष्ट हुये। वहाँ का दृष्य देखकर वे बोले, "हे दूत! अयोध्या की ये वाटिकाएँ जन-शून्य क्यों हैं? नगर में प्रतिदिन होने वाले प्रजाजनों का तुमुलनाद क्यों सुनाई नहीं दे रहा है? ऐस क्यों प्रतीत हो रहा है जैसे आज अयोध्या श्रीहीन हो गई हो? क्या यहाँ किसी प्रकार की अवांछनीय घटना घटित हुई है?"
दूतों ने उनके इन प्रश्नों का कुछ भी उत्तर नहीं दिया। आशंकित भरत राजप्रासाद में पहुँचे। वे सबसे पहले पिता के दर्शन करने के लिये उनके भवन की ओर चले। उन्हें वहाँ न पाकर वे अपनी माता कैकेयी के कक्ष में पहुँचे। उन्हें देख कर मुस्कुराती हुई कैकेयी स्वर्ण के आसन से उठी। भरत ने माता का चरण स्पर्श किया। कैकेयी ने उन्हें हृदय से लगाकर आशीर्वाद दिया और अपनी माता और पिता के कुशल समाचार पूछा।
कैकेय की कुशलता के विषय में जान लेने के पश्चात् वह बोली, "वत्स! मार्ग में तुम्हें कोई कष्ट तो नहीं हुआ?"
उसके इस प्रश्न का कुछ भी उत्तर न देकर भरत ने पूछा, "माता, मैं पिताजी के भवन से यहाँ आ रहा हूँ। वे वहाँ नहीं थे। मुझे बताइये वे कहाँ हैं?"
तटस्थ भाव से कैकेयी ने कहा, "हे पुत्र! तुम्हारे तेजस्वी पिता स्वर्ग सिधार गये।"
कैकेयी के मुख से इन शब्दों को सुनते ही भरत के हृदय को मर्मान्तक आधात लगा। वे बिलख-बिलख कर रोने लगे। फिर वे बोले, "अचानक अचानक यह कैसे हो गया? हाय! मैं कितना अभागा हूँ कि अन्तिम समय में उनके दर्शन भी न कर सका। धन्य हैं राम-लक्ष्मण जिन्होंने अन्तिम समय में पिताजी की सुश्रूषा की। पिताजी के बाद अब भैया राम ही मेरे आश्रय एवं पूज्य हैं। वे कहाँ हैं? माता! क्या अन्तिम समय में पिताजी ने मुझे याद किया था? मेरे लिये उन्होंने क्या सन्देश दिया है?"
भरत को सान्त्वना देती हुई कैकेयी बोले, "वत्स! तुम्हारे पिताजी ने तुम्हारे लिये कुछ भी सन्देश नहीं दिया। पाँच दिवस और पाँच रात्रि तक वे हा राम! हा लक्ष्मण! हा सीता! कह कर विलाप करते रहे और विलाप करते-करते ही परलोक सिधार गये।"
यह सुनकर भरत की पीड़ा और बढ़ गई और वे बोले, "क्या पिताजी के अन्तिम समय में भैया राम भी नहीं थे? क्या पिताजी को उनके वियोग में प्राण त्यागने पड़े? वे कहाँ चले गये थे?"
कैकेयी ने मुस्कुराते हुये कहा, "तुम्हारा बड़ा भाई राम तो, लक्ष्मण और सीता के साथ वक्कल पहन कर वन को चला गया है। मैं तुम्हें पूरी बात से अवगत कराती हूँ। तुम्हारे पिता ने राम के अभिषेक का निश्चय किया था। राम के अभिषेक की बात सुन कर मैंने महाराज से दो वर माँग लिये। प्रथम वर से तुम्हारे लिये अयोध्या का राज्य माँगा और द्वितीय वर से राम के लिये चौदह वर्ष का वनवास। राम के साथ सीता और लक्ष्मण भी स्वयं अपनी इच्छा से चले गये। उनके चले जाने पर तुम्हारे पिता विलाप करते-करते मृत्यु को प्राप्त हो गये। अब यह राज्य अब तुम्हारा है। अतः शोक को त्याग दो और निष्कंटक राज्य करो। तुम्हारे विरुद्ध विद्रोह करने वाला अब इस नगर में कोई भी नहीं रह गया है। मैंने पूरी व्यवस्था कर रखी है। तुम गुरु वशिष्ठ और मन्त्रियों को बुलाओ और अपना राज्यतिलक करवाओ।"
राम-लक्ष्मण के वनवास के विषय में और पिता की मृत्यु का कारण जान कर भरत का मन व्यथा से भर गया और साथ ही साथ उनका तन क्रोध से जल उठा। वे बोले, "हे पापिन माते! तुम रघुकुल का कलंक हो। मेरे भाइयों के वनवास और पिता की मृत्यु का कारण तुम्हारी दुष्टता ही है। तुम रघुकुल का नाश करने वाली नागिन हो। हे जड़बुद्धि! तुमने राम को वन क्यों भेजा? मुझे तो प्रतीत होता है कि पिताजी की भाँति माता कौसल्या और माता सुमित्रा भी पति और पुत्र वियोग में अपने प्राण त्याग देंगीं। राम भैया तो तुम्हारा मुझसे भी अधिक सम्मान करते थे। माता कौसल्या तुम्हारे साथ सहोदर भगिनी जैसा व्यवहार करती थीं। फिर तुमने इतना बड़ा अन्याय क्यों किया? हे पाषाणहृदये माता! जिन भाइयों और भाभी ने कभी दुःख नहीं देखा उन्हें इतना कठोर दण्ड देकर तुम्हें क्या मिल गया? भैया राम के वियोग में मैं पल भर भी नहीं रह सकता। क्या तुम इतना भी नहीं जानतीं कि सद्गुणों में मैं राम के चरणों की धूलि के बराबर भी नहीं हूँ। तुमने मेरे मस्तक पर बहुत बड़ा कलंक लगा दिया। मैं इसी क्षण तुम्हारा परित्याग कर देता किंतु तुम्हारे उदर से जन्म लेने के कारण ऐसा भी नहीं कर सकता। अस्तु, मैं यदि तुम्हें नहीं त्याग सकता तो क्या हुआ, अपने प्राण तो त्याग सकता हूँ। मैं विष खा लूँगा या वनों में राम को ढूँढते हुये प्राण दे दूँगा। यह तुमने कैसे भुला दिया कि इक्ष्वाकु कुल में सदा से ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य करता आया है? मैं अभी वन जाकर राम को वापस बुला लाउँगा और उनका सिंहासन उन्हें सौंप दूँगा।"
इतना कहकर वे शत्रुघ्न सहित रोते-रोते कौसल्या के भवन की ओर चले दिये।
भरत और शत्रुघ्न ने माता कौसल्या का चरणस्पर्श किये। उन्हें आशीर्वाद देकर कौसल्या बोली, "वत्स! यह तो अच्छी बात है कि तुम्हें राज्य प्राप्त हो गया। किन्तु निर्दोष राम को वनवास देकर तुम्हारी माता को क्या मिला? मैंने निश्चय किया है कि तुम्हारे सिंहासन सँभालने के पश्चात् मैं भी वन चली जाउँगी।"
उनके इन शब्दों को सुनकर भरत ने रोते हुये कहा, "हे माता! आप मुझे क्यों दोष देती हैं? जो कुछ भी हुआ वह मेरे अनुपस्थिति में हुआ है। भैया के वियोग में तो मेरा हृदय फटा जा रहा है। उनके बिना अयोध्या का तो क्या, यदि त्रैलोक्य का राज्य भी कोई मुझे दे तो मैं नहीं लूँगा। राम के वनगमन में यदि मेरी लेशमात्र भी सहमति हो तो मुझे रौरव नर्क मिले। इसी समय भूमि फट जाये और मैं उसमें समा जाऊँ। यदि इस दुष्ट कार्य में मेरी सहमति हो तो मुझे वह दण्ड मिले जो घृणित पाप करने वाले पापी को मिलती है।"
यह कहकर रोते हुये भरत मूर्छित होकर कौसल्या के चरणों में गिर पड़े।
जब वे कुछ चैतन्य हुये तो कौसल्या बोली, "बेटा! इस प्रकार की बातें करके तुम मुझे क्यों दुःखी करते हो? क्या मैं तुम्हें और तुम्हारे हृदय को नहीं पहचानती?" और वे भरत को नाना प्रकार से सान्त्वना देने लगीं।
4 टिप्पणियाँ:
जय हो आपकी............
बहुत उत्तम कार्य .....
खूब मेहनत हो रही होगी दादा !
__हमें तो आनन्द आ रहा है
भरत का महान चरित्र स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है.....
भरत का भ्राता प्रेम ... अतुलनीय है |
Sri Awadhiya Ji .
Saadar Pranaam, Bahut hi maarmik drishya hai, Maata Kaushalyaa Bhi Bharat se Atulniya sneha rakhti Hain..
Ye saraa kiyaa karaaya us paapini MANTHARA kaa hai jisne Kayekeyi ke bhudhi ko bhrasht kar Diya Tha...
Aacha Mujhe ye bataane ka kasht kijiye ki Main Hindi Mein Kaise Apne Comment Doon..
Aapke Uttar ki pratikshea rahegi..
Ab Main aage padne jaa raha hoon jaa raha hoon...
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