भरत का अयोध्या लौटना - अयोध्याकाण्ड (24)
>> Monday, November 2, 2009
अयोध्या के अत्यन्त चतुर मन्त्री जाबालि ने कहा, "हे रामचन्द्र! सारे नाते मिथ्या हैं। संसार में कौन किसका बन्धु है? जीव अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही नष्ट होता है। सत्य तो यह है कि इस संसार में कोई किसी का सम्बन्धी नहीं होता। सम्बन्धों के मायाजाल में फँसकर स्वयं को विनष्ट करना बुद्धिमानी नहीं है। आप पितृऋण के मिथ्या विचार को त्याग दें और राज्य को स्वीकार करें। स्वर्ग-नर्क, परलोक, कर्मों का फल आदि सब काल्पनिक बातें हैं। जो प्रत्यक्ष है, वही सत्य है। परलोक की मिथ्या कल्पना से स्वयं को कष्ट देना आपके लिये उचित नहीं है।"राम ने भरत को हृदय से लगा लिया और कहा, "भैया भरत! तुम तो अत्यंत नीतिवान हो। क्या तुम समझते हो कि मुझे राज्य के निमित्त पिता के वचनों को भंग कर देना चाहिये? क्या धर्म से पतित होना उचित है? जो कुछ भी हुआ उसमें तुम्हारा कोई भी दोष नहीं है। तुम्हें दुःखी और लज्जित होने की किंचित मात्र भी आवश्यकता नहीं है। माता कैकेयी की निन्दा करना भी उचित नहीं है क्योंकि उन्होंने पिताजी की अनुमति से ही वर माँगे थे। मेरे लिये माता कैकेयी और माता कौसल्या दोनों ही समान रूप से सम्माननीय हैं। तुम्हें ज्ञात है कि मैं पिताजी की आज्ञा का उल्लंघन कदापि नहीं कर सकता। पिताजी ने स्वयं ही तुम्हें राज्य राज्य प्रदान किया है, अतः उसे ग्रहण करना तुम्हारा कर्तव्य है। पिताजी के परलोक सिधार जाने का मुझे अत्यंत दुःख है। मुझ अभागे को उन्होंने अपनी सेवा, अन्तिम दर्शन और दाह संस्कार के अवसर से वंचित कर दिया।"
कहते-कहते राम के नेत्रों से अश्रुधारा बह चली।
फिर उन्होंने सीता से जाकर कहा, "प्रिये! पूज्य पिताजी स्वर्गलोक सिधार गये।"
तत्पश्चात् लक्ष्मण को संबोधित करते हुये बोले, "भैया! अभी-अभी मुझे यह समाचार भरत से प्राप्त हुआ है कि हम पितृविहीन हो गये हैं।"
इस सूचना को सुनते ही सीता और लक्ष्मण बिलख-बिलख कर रो पड़े।
इसके पश्चात् राम ने प्रयासपूर्वक धैर्य धारण किया और सीता तथा लक्ष्मण के साथ मन्दाकिनी के तट पर जाकर पिता को जलांजलि दी। वक्कल चीर धारण किया, हंगुदी के गूदे का पिण्ड बनाया और उस पिण्ड को कुशा पर रख कर उनका तर्पण किया। पिण्डदान तथा स्नानादि से निवृत होने के पश्चात् वे अपनी कुटिया में लौटे और भाइयों को भुजाओं में भर कर रोने लगे।
उनके आर्तनाद को सुनकर गुरु वसिष्ठ तथा सभी रानियाँ वहाँ आ पहुँचीं। विलाप करने में वे रानियाँ भी सम्मिलित हो गईं। फिर प्रयासपूर्वक धैर्य धारण करके राम, लक्ष्मण और सीता ने सब रानियों एवं गुरु वसिष्ठ के चरणों की वन्दना की। कुछ काल पश्चात् सभी लोग रामचन्द्र को घेर कर बैठ गये और महाराज दशरथ के विषय में चर्चा करने लगे। इस प्रकार वह रात्रि व्यतीत हो गई।
प्रातःकाल संध्या-उपासना आदि से निवृत होकर, राजगुरु तथा मन्त्रीगण को साथ लेकर, भरत राम के पास आये और बोले, "हे रघुकुलशिरोमणि! प्रतिज्ञाबद्ध होने के कारण पिताजी ने अयोध्या का राज्य मुझे प्रदान किया था। उस राज्य को अब मैं आपको समर्पित करता हूँ। कृपा करके आप इसे स्वीकार करें।"
राम ने कहा, "भरत! मैं जानता हूँ कि पिता की मृत्यु और मेरे वनवास से तुम अत्यंत दुःखी हो। किन्तु विधि के विधान को भला कौन टाल सकता है। किसी को भी इसके लिये दोष देने की आवश्यकता भी नहीं है। संयोग के साथ वियोग का और जन्म के साथ मृत्यु का सम्बन्ध तो सदा से ही चला आया है। हमारे पिता सहस्त्रों यज्ञ, दान तप आदि करने के पश्चात् ही स्वर्ग सिधारे हैं। इसलिये उनके लिये शोक करना व्यर्थ है। तुम्हें पिताजी की आज्ञा मानकर अयोध्या का राज्य करना चाहिये और मुझे भी उनकी आज्ञा का पालन करते हुये वन में निवास करना चाहिये। ऐसा न करने से मुझे और तुम्हें दोनों को ही नरक की यातना भुगतनी पड़ेगी।"
राम के ये तर्कपूर्ण वचन अकाट्य थे।
इन वचनों को सुनकर भरत ने हाथ जोड़कर कहा, "हे आर्य! इस दुर्घटना के समय मैं अपने नाना के घर में था। मेरी माता की मूर्खता के कारण ही यह सारा अनिष्ट हुआ। मैं भी धर्माधर्म का कुछ ज्ञान रखता हूँ इसीलिये मैं आपके अधिकार का अपहरण कदापि नहीं कर सकता। आप क्षत्रिय हैं और क्षत्रिय का धर्म जटा धारण करके तपस्वी बनना नहीं अपितु प्रजा का पालन करना है। आपसे आयु, ज्ञान, विद्या आदि सभी में छोटा होते हुये भी मैं सिंहासन पर कैसे बैठ सकता हूँ? इसीलिये आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप राजसिंहासन पर बैठकर मेरे माता को लोक निन्दा से और पिताजी को पाप से बचाइये अन्यथा मुझे भी वन में रहने की अनुमति दीजिये।"
रामचन्द्र ने भरत को फिर से समझाते हुये कहा, "पिताजी ने तुम्हें राज्य प्रदान किया है और मुझे चौदह वर्ष के लिये वनवास की आज्ञा दी है। जिस प्रकार मैं उनके वचनों पर श्रद्धा रखकर उनकी आज्ञा का पालन कर रहा हूँ, उसी प्रकार तुम भी उनकी आज्ञा को अकाट्य मानकर अयोध्या पर शासन करो। उनके वचनों की यदि हम अवहेलना करेंगे तो उनकी आत्मा को क्लेश पहुँचेगा। तुम्हें राजकार्य में समुचित सहायता देने के लिये शत्रुघ्न तुम्हारे साथ हैं ही। पिताजी को अपनी प्रतिज्ञा के ऋण से मुक्ति दिलाना हम चारों भाइयों का कर्तव्य है।"
रामचन्द्र के वचनों को सुनकर अयोध्या के अत्यन्त चतुर मन्त्री जाबालि ने कहा, "हे रामचन्द्र! सारे नाते मिथ्या हैं। संसार में कौन किसका बन्धु है? जीव अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही नष्ट होता है। सत्य तो यह है कि इस संसार में कोई किसी का सम्बन्धी नहीं होता। सम्बन्धों के मायाजाल में फँसकर स्वयं को विनष्ट करना बुद्धिमानी नहीं है। आप पितृऋण के मिथ्या विचार को त्याग दें और राज्य को स्वीकार करें। स्वर्ग-नर्क, परलोक, कर्मों का फल आदि सब काल्पनिक बातें हैं। जो प्रत्यक्ष है, वही सत्य है। परलोक की मिथ्या कल्पना से स्वयं को कष्ट देना आपके लिये उचित नहीं है।"
जाबालि के इस प्रकार कहने पर राम बोले, "मन्त्रिवर! आपके ये नास्तिक विचार मेरे हित के लिये उचित नहीं हैं वरन ये मेरे लिये अहितकारी है। मैं सदाचार और सच्चरित्रता को अत्यधिक महत्व देता हूँ। यदि राजा ही सत्य के मार्ग से विचलित होगा तो प्रजा भी उसका ही अनुसरण करेगी और कुपथगामी हो जायेगी। मैं आपके इस अनुचित मन्त्रणा को स्वीकार करने में असमर्थ हूँ। मुझे तो आश्चर्य के साथ ही साथ दुःख इस बात का है कि परम आस्तिक तथा धर्मपरायण पिताजी ने आप जैसे नास्तिक व्यक्ति को मन्त्रीपद कैसे प्रदान किया।"
राम के इन रोषपूर्ण वचनों को सुनकर जाबालि ने कहा, "राघव! मैं नास्तिक नहीं हूँ। भरत के बारम्बार किये गये आग्रह को आपके द्वारा अस्वीकार करने के कारण ही मैंने ये बाते कहीं थीं। मेरा उद्देश्य केवल आपको लौटा ले जाना ही था। आपको लौटा ले जाने के लिये मेरी मन्द बुद्धि में इन बातों के अतिरिक्त और कोई उपाय ही नहीं सूझा।"
किसी भी प्रकार से राम ने भरत की प्रार्थना को स्वीकार नहीं किया।
विवश होकर भरत ने हाथ जोड़कर कहा, "हे तात! मैंने अटल प्रतिज्ञा की है कि मैं आपके राज्य को ग्रहण नहीं करूँगा। यदि आप पिताजी की आज्ञा का पालन ही करना चाहते हैं तो अपने स्थान पर मुझे वन में रहने की अनुमति दीजिये। आपके बदले मेरे वन में रहने से भी पिता को माता के ऋण से मुक्ति मिल जायेगी।"
इन स्नेहपूर्ण वचनों को सुनकर राम मन्त्रियों और पुरवासियों की ओर देखकर बोले, "जो कुछ भी हो चुका है उसे न तो मैं बदल सकता हूँ और न ही भरत। वनवास की आज्ञा मुझे हुई है, न कि भरत को। मैं माता कैकेयी के कथन और पिताजी के कर्म दोनों को ही उचित समझता हूँ। मातृभक्त, पितृभक्त और गुरुभक्त होने के साथ ही साथ भरत सर्वगुण सम्पन्न भी हैं। अतः उनका ही राज्य करना उचित है।"
जब राम किसी भी प्रकार से अयोध्या लौटने के लिये राजी नहीं हुए तो भरत ने रोते हुये कहा, "भैया! मैं जानता हूँ कि आपकी प्रतिज्ञा अटल है, किन्तु यह भी सत्य है कि अयोध्या का राज्य भी आप ही का है। अतः आप अपनी चरण पादुकाएँ मुझे प्रदान करें। मैं इन्हें अयोध्या के राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित करूँगा और स्वयं, वक्कल धारण करके ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए, नगर के बाहर रहकर आपके सेवक के रूप में राजकाज चलाउँगा। चौदह वर्ष पूर्ण होते ही यदि आप अयोध्या नहीं पहुँचे तो मैं स्वयं को अग्नि में भस्म कर दूँगा। यही मेरी प्रतिज्ञा है।"
रामचन्द्र जी ने भरत को हृदय से लगाकर उन्हें अपनी पादुकाएँ दे दीं। फिर शत्रुघ्न को समझाते हुये बोले, "भैया! माता कैकेयी को कभी अपशब्द कहकर उनका अपमान मत करना। इस बात को कभी न भूलना कि वे हम सबकी पूज्य माता हैं। तुम्हें मेरी और सीता की शपथ है।"
फिर माताओं को धैर्य बँधा कर सम्मानपूर्वक सबको विदा किया।
श्री राम की चरण पादुकाओं के साथ भरत और शत्रुघ्न रथ पर सवार हुये। उनके पीछे अन्य अनेक रथों पर माताएँ, गुरु, पुरोहित, मन्त्रीगण तथा अन्य पुरवासी चले। सबसे पीछे सेना चली। उदास मन लिये हुए सब लोग तीन दिन में अयोध्या पहुँचे।
अयोध्या पहुँच जाने पर भरत ने गुरु वसिष्ठ से कहा, "गुरुदेव! आपको तो ज्ञात ही हैं कि अयोध्या के वास्तविक नरेश राम हैं। उनकी अनुपस्थिति में उनकी चरण पादुकाएँ सिंहासन की शोभा बढ़ायेंगी। मैं नगर से दूर नन्दिग्राम में पर्णकुटी बनाकर निवास करूँगा और वहीं से राजकाज का संचालन करूँगा।"
फिर वे नन्दिग्राम से ही राम के प्रतिनिधि के रूप में राज्य का कार्य संपादन करने लगे।
4 टिप्पणियाँ:
लगता है यह प्रकरण दुबारा रामायण में पढ़ना पड़ेगा।
बहुत सुन्दए अवधिया जी।
बहुत सुन्दर.....!!
जाबालि का प्रकरण कभी पढ़ा नहीं...
मन्त्र मुग्ध हो कर एक-एक भाग पढ़ रहा हूँ ....
Post a Comment