तपस्विनी स्वयंप्रभा - किष्किन्धाकाण्ड (12)
>> Saturday, November 28, 2009
वह गुफा अत्यन्त ही अन्धकारमय थी किन्तु वानरों की दृष्टि उस अन्धकार में भी कार्य कर रही थी। उनका तेज और पराक्रम अवरुद्ध नहीं होता था और उनकी गति वायु के समान थी। तीव्र वेग के साथ वे उस गुफा के भीतर पहुँच गये। भीतर पहुँच कर उन्होंने देखा कि वह स्थान अत्यन्त उत्तम, प्रकाशमान और मनोहर था। चारों ओर साल, ताल, तमाल, नागकेसर, अशोक, धव, चम्पा, कनेर आदि के पुष्पयुक्त वृक्ष दृष्टिगत हो रहे थे। वे सभी वृक्ष सुवर्नमय थे, उनसे अग्नि के समान प्रभा निकल रही थी और उनके फल फूल भी सुनहरे रंग के थे। इन वृक्षों में लगे मूँगे और मणियों के समान चमकीले फूलों और फलों पर सुनहरे रंग के भौंरे मंडरा रहे थे। सूर्य जैसी आभा वाली काञ्चन वृक्षों से घिरे अनेक विशाल सरोवर भी दिखाई पड़े जिनमें स्वर्णकमल और सुनहरे मत्स्य शोभा पा रहे थे।
उन्होंने वहाँ पर सोने और चांदी से बने हुए बहुत सारे भवन भी देखे जिनकी खिड़कियाँ मोतियों की जालियों से ढँकी हुई थीं। स्वर्ण तथा रजत से निर्मित विमान भी दृष्टिगत हो रहे थे। वहाँ रखे हुये अनेक पात्रों में सोने, चांदी और कांसे के ढेर भरे हुए थे। बहुमूल्य सवारियाँ, सरस मधु, महामूल्यवान दिव्य वस्त्रों के ढेर, विचित्र कम्बल एवं कालीनें, मृगचर्मों के समूह आदि भी जहाँ तहाँ रखे हुए थे।
कुछ दूर जाने पर उन्हें वक्कल और काले रंग का मृगचर्म धारण किये हुये एक स्त्री दिखी जिसका मुख तपस्या के तेज से दमक रहा था।
परम बुद्धिमान हनुमान जी ने उस तपस्विनी के पास जाकर हाथ जोड़ कर कहा, "देवि! आप कौन हैं? यह गुफा, ये भवन तथा ये रत्नादि किसके हैं? हे देवि! हम लोग भूख-प्यास और थकावट से व्याकुल होकर जल मिलने की आशा से इस गुफा में चले आये हैं किन्तु यहाँ के अद्भुत पदार्थों को देख कर हमारी विवेकशक्ति लुप्तप्राय हो गई है। यह सब आपकी तपस्या के प्रभाव से हुआ है या यह कोई आसुरी माया है?"
तपस्विनी ने यह कह कर कि तुम सब पहले भोजन ग्रहण कर लो, उन सभी को शुद्ध भोजन, फल-मूल आदि दिया।
फिर भोजन से तृप्त हुए वानरों से तपस्विनी ने कहा, "वानरश्रेष्ठ! इस दिव्य सुवर्णमय उत्तम भवन को दानवशिरोमणियों के विश्वकर्मा मयासुर ने बनाया है। इस भवन में निवास करते हुए मयासुर का सम्पर्क हेमा नाम की अप्सरा से हो गया जिससे क्रुद्ध होकर देवराज इन्द्र ने अपने वज्र से मयासुर का वध कर डाला। अब यह स्थान हेमा के ही आधीन है। मैं मेरसावर्णि की कन्या हूँ और मेरा नाम स्वयंप्रभा है। हेमा मेरी प्रिय सखी है। उसी के द्वारा नियुक्त होकर मैं इस स्थान का संरक्षण करती हूँ। अब तुम लोग बताओ कि तुम लोग किस प्रयोजन से घूम रहे हो?"
पवनकुमार हनुमान जी बोले, "देवि! पिता की आज्ञा से दशरथनन्दन श्री राम अपनी पत्नी सीता और अनुज लक्ष्मण के साथ दण्डकारण्य में निवास कर रहे थे। जनस्थान में आकर रावण ने उनकी स्त्री का बलपूर्वक अपहरण कर लिया। श्री राम वानरराज सुग्रीव के मित्र हैं। हम लोग अपने राजा सुग्रीव की आज्ञा से जानकी जी की खोज कर रहे हैं। हमें इस गुफा से बाहर निकलने का कोई मार्ग नहीं दिख रहा है अतः आप हमें यहाँ से बाहर निकालने की कृपा करें ताकि हम अपने कर्तव्य को पूर्ण कर सकें।"
तपस्विनी स्वयंप्रभा ने कहा, "श्रेष्ठ वानरों! यद्यपि इस स्थान में आ जाने वाला जीवन भर यहाँ से बाहर नहीं निकल सकता किन्तु मैं अपने तप के प्रभाव से तुम सब को यहाँ से बाहर निकाल दूँगी। तुम सभी अपनी आँखें बंद कर लो।"
वानरों के आँख मूँदते ही स्वयंप्रभा ने निमिषमात्र में उन्हें गुफा से बाहर निकाल कर कहा, "अब तुम अपनी आँखें खोल लो। यह देखो तुम्हारे समक्ष महासागर लहरा रहा है। तुम्हारा कल्याण हो।"
इतना कह कर तपस्विनी स्वयंप्रभा अपने स्थान में वापस चली गईं।
4 टिप्पणियाँ:
रामचरित मानस में स्वयंप्रभा का ज्यादा विवरण नहीं मिलता -शुक्रिया !
ek nayee baat jaanee, aabhaar...
Interesting
Interesting
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