रावण के दरबार में - सुन्दरकाण्ड (14)

>> Tuesday, March 2, 2010

हनुमान रावण के भव्य दरबार को विश्लेषणात्मक दृष्टि से देखने लगे। रावण का ऐश्वर्य अद्भुत था। वे सोचने लगे, अद्भुत रूप और आश्चर्यजनक तेज का स्वामी राजोचित लक्षणों से युक्त में यदि प्रबल अधर्म न होता तो यह राक्षसराज इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवलोक का संरक्षक हो सकता था। इसके लोकनिन्दित क्रूरतापूर्ण निष्ठुर कर्मों के कारण देवताओं और दानवों सहित सम्पूर्ण लोक इससे भयभीत रहते हैं।

समस्त लोकों को रुलाने वाला महाबाहु रावण भूरी आँखोंवाले हनुमान को समक्ष इस प्रकार निर्भय खड़ा देखकर रोष से भर गया और क्रुद्ध होकर अपने महामन्त्री प्रहस्त से बोला, "अमात्य! इस दुरात्मा से पूछो कि यह कहाँ से आया है? इसे किसने भेजा है? सीता से यह क्यों वार्तालाप कर रहा था? अशोकवाटिका को इसने क्यों नष्ट किया? इसने किस उद्देश्य से राक्षसों को मारा? मेरी इस दुर्जेय पुरी में इसके आगमन का प्रयोजन क्या है?"

रावण की आज्ञा पाकर प्रहस्त ने कहा, "हे वानर! भयभीत मत होओ और धैर्य धारण करो। सही सही बता दो कि तुम्हें किसने यहाँ भेजा है? महाराज रावण की नगरी में कहीं तुम्हें इन्द्र ने तो नहीं भेजा है? कहीं तुम कुबेर, यह या वरुण के दूत तो नहीं हो? या विजय की अभिलाषा रखने वाले विष्णु ने तुम्हें दूत बना कर भेजा है? यदि तुम हमें सच सच बता दो कि तुम कौन हो तो हम तुम्हें क्षमा कर सकते हैं। यदि तुम मिथ्या भाषण करोगे तो तुम्हारा जीना असम्भव हो जायेगा।"

प्रहस्त के इस प्रकार पूछने पर पवनपुत्र हनुमान ने निर्भय होकर राक्षसों के स्वामी रावण से कहा, "हे राक्षसराज! मैं इन्द्र, यम, वरुण या कुबेर का दूत नहीं हूँ। न ही मुझे विष्णु ने यहाँ भेजा है। मैं राक्षसराज रावण से मिलने के उद्देश्य से यहाँ आया हूँ और इसी उद्देश्य के लिये मैंने अशोकवाटिका को नष्ट किया है। तुम्हरे बलवान राक्षस युद्ध की इच्छा से मेरे पास आये तो मैंने स्वरक्षा के लिये रणभूमि में उनका सामना किया। ब्रह्मा जी से मुझे वरदान प्राप्त है कि देवता और असुर कोई भी मुझे अस्त्र अथवा पाश से बाँध नहीं सकते। राक्षसराज के दर्शन के लिये ही मैंने अस्त्र से बँधना स्वीकार किया है। यद्यपि इस समय मैं अस्त्र से मुक्त हूँ तथापि इन राक्षसों ने मुझे बँधा समझकर ही यहाँ लाकर तुम्हें सौंपा है। मैं श्री रामचन्द्र जी का दूत हूँ और उनके ही कार्य से यहाँ आया हूँ।"


शान्तभाव से हनुमान ने आगे कहा, "मैं किष्किन्धा के परम पराक्रमी नरेश सुग्रीव का दूत हूँ। उन्हीं की आज्ञा से तुम्हारे पास आया हूँ। हमारे महाराज ने तुम्हारा कुशल समाचार पूछा है और कहा है कि तुमने नीतिवान, धर्म, चारों वेदों के ज्ञाता, महापण्डीत, तपस्वी और महान ऐश्वर्यवान होते हुए भी एक परस्त्री को हठात् अपने यहाँ रोक रखा है, यह तुम्हारे लिये उचित बात नहीं है। तुमने यह दुष्कर्म करके अपनी मृत्यु का आह्वान किया है। उन्होंने यह भी कहा है कि लक्ष्मण के कराल बाणों के सम्मुख बड़े से बड़ा पराक्रमी भी नहीं ठहर सकता, फिर तुम उससे अपने प्राणों की रक्षा कैसे कर सकोगे? इसलिये तुम्हारे लिये उचित होगा कि तुम सीता को श्री रामचन्द्र को लौटा दो और उनसे क्षमा माँगो। यदि तुम ऐसा नहीं करोगे तो तुम्हारा अन्त भी वही होगा जो खर, दूषण और वालि का हुआ है।"

हनुमान के ये नीतियुक्त वचन सुनकर रावण का सर्वांग क्रोध से जल उठा। उसने अपने सेवकों को आज्ञा दी, "इस वानर का वध कर डालो।"

रावण की आज्ञा सुनकर वहाँ उपस्थित विभीषण ने कहा, "राक्षसराज! आप धर्म के ज्ञाता और राजधर्म के विशेषज्ञ हैं। दूत के वध से आपके पाण्डित्य पर कलंक लग जायेगा। अतः उचित-अनुचित का विचार करके दूत के योग्य किसी अन्य दण्ड का विधान कीजिये।"

विभीषण के वचन सुनकर रावण ने कहा, "शत्रुसूदन! पापियों का वध करने में पाप नहीं है। इस वानर ने वाटिका का विध्वंस तथा राक्षसों का वध करके पाप किया है। अतः मैं अवश्य ही इसका वध करूँगा।"

रावण के वचन सुनकर उसके भाई विभीषण ने विनीत स्वर में कहा, "हे लंकापति! जब यह वानर स्वयं को दूत बताता है तो नीति तथा धर्म के अनुसार इसका वध करना अनुचित होगा क्योंकि दूत दूसरों का दिया हुआ सन्देश सुनाता है। वह जो कुछ कहता है, वह उसकी अपनी बात नहीं होती, इसलिये वह अवध्य होता है।"

विभीषण की बात पर विचार करने के पश्चात् रावण ने कहा, "तुम्हारा यह कथन सत्य है कि दूत अवध्य होता है, परन्तु इसने अशोकवाटिका का विध्वंस किया है इसलिये इसे दण्ड मिलना चाहिये। वानरों को अपनी पूँछ बहुत प्यारी होती है। अतः मैं आज्ञा देता हूँ कि इसकी पूँछ रुई और तेल लगाकर जला दी जाये ताकि इसे बिना पूँछ का देखकर लोग इसकी हँसी उड़ायें और यह जीवन भर अपने कर्मों पर पछताता रहे।"

रावण की आज्ञा पाते ही राक्षसों ने हनुमान की पूँछ को रुई और पुराने कपड़ों से लपेटकर उस पर बहुत सा तेल डालकर आग लगा दी। अपने पूँछ को जलते देख हनुमान को बहुत क्रोध आया। सबसे पहले तो उन्होंने रुई लपेटने और आग लगाने वाले राक्षसों को जलती पूँछ से मार मार कर पृथ्वी पर सुला दिया। वे जलते-चीखते-चिल्लाते वहाँ से अपने प्राण लेकर भागे। कुछ राक्षस उनका अपमान करने के लिये उन्हें बाजारों में घुमाने के लिये ले चले। उस दृश्य को देखने के लिये बाजारों में राक्षसों की और घरों के छज्जों तथा खिड़कियों पर स्त्रियों की भीड़ जमा हो गई। मूर्ख राक्षस उन्हें अपमानित करने के लिये उन पर कंकड़ पत्थर फेंकने तथा अपशब्द कहने लगे। इस अपमान से क्रुद्ध होकर स्वाभिमानी पवनसुत एक ही झटके से सारे बन्धनों को तोड़कर नगर के ऊँचे फाटक पर चढ़ गये और लोहे का एक बड़ा सा चक्का उठाकर अपमान करने वाले राक्षसों पर टूट पड़े। इससे चारों ओर भगदड़ मच गई।

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