हनुमान राक्षस युद्ध - सुन्दरकाण्ड (12)
>> Thursday, February 25, 2010
सीता से विदा ले कर जब हनुमान चले तो वे सोचने लगे कि जानकी का पता तो मैंने लगा लिया, उनको रामचन्द्र जी का संदेश देने के अतिरिक्त उनसे भी राघव के लिये संदेश प्राप्त कर लिया। अब शत्रु की शक्ति का भी ज्ञात कर लेना चाहिये। राक्षसों के प्रति साम, दान और भेद नीति अपनाने से लाभ होना नहीं है अतः मुझे यहाँ दण्ड नीति अपनाने के लिये अपने पराक्रम का प्रदर्शन करना ही उचित जान पड़ता है। ऐसा सोच कर उन्होंने अशोकवाटिका को विध्वंस करने का विचार किया जो रावण अत्यन्त प्रिय थी। उन्होंने विचार किया जब वह अपनी प्रिय वाटिका को उजड़ने का समाचार सुनेगा तो अवश्य क्रुद्ध होकर अपने वीर सैनिकों को मुझे पकड़ने या मारने के लिये भेजेगा। यह विचार आते ही वे वाटिका के सुन्दर वृक्षों को तोड़ने तथा उखाड़ने, जलाशयों को मथने और पर्वत-शिखरों को चूर-चूर करने लगे। थोड़ी ही देर में वाटिका ऐसे जान पड़ने लगी मानो वह दावानल से झुलस गई हो। सुन्दर सरोवरों के मणिमय स्फटिक घाटों टूटकर कर मलबे में परिवर्तित हो गये। वाटिका में बनी अट्टालिकाएँ भी उनके विध्वंसक हाथों से न बच सकीं। इस प्रकार उन्होंने अशोकवाटिका को शोकवाटिका बना दिया। सब पक्षी घोसलों से निकल कर आकाश में मँडराने लगे।
जो राक्षसियाँ रात भर सीता पर पहरा देते-देते सो गई थीं, वे भी अब इस शोर को सुन कर जाग गईं और उन्होंने चकित होकर अशोक वाटिका की दुर्दशा को देखा। वे दौड़ी हुईं रावण के पास जाकर बोलीं, "हे राजन्! अशोकवाटिका में एक भयंकर वानर घुस आया है। उसने सब वृक्षों को तोड़ कर तहस-नहस कर दिया है। सरोवर के घाटों तथा अट्टालिकाओं को भी तोड़ कर कूड़े का ढेर बना दिया है। जब हमने उसे भगाने का प्रयत्न किया तो वह हमारे ऊपर झपट पड़ा। बड़ी कठिनाई से हम प्राण बचा कर आपके पास तक पहुँच पाई हैं। उस दुष्ट वानर ने तो जानकी के साथ भी न जाने क्या वार्तालाप किया है। हमें उससे बहुत भय लगता है। कहीं वह सीता को भी जान से न मार डाले।"
यह समाचार सुन कर रावण प्रज्वलित चिता की भाँति क्रोध से जल उठा। उसकी भृकुटि धनुष की भाँति तन गई। उसने तत्काल अपने अनुचरों को आज्ञा दी कि उस दुष्ट वानर को पकड़ कर मेरे पास लाओ। रावण की आज्ञा मिलते ही अस्सी हजार राक्षस नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र और लोहे की श्रृंखला लेकर उस उत्पाती वानर को पकड़ने के लिये चल पड़े।
विचित्र गदाओं, परिधों आदि से युक्त वे वेगवान राक्षस अशोकवाटिका के द्वार पर खड़े हुए वानरवीर हनुमान जी पर चारों ओर से इस प्रकार झपटे मानो पतंगे आग पर टूट पड़े हों। तब पर्वत के समान विशाल शरीर वाले तेजस्वी हनुमान ने उच्च स्वर में घोषणा की, "महाबली श्री राम तथअ लक्ष्मण की जय हो। श्री राम के द्वारा सुरक्षित राजा सुग्रीव की भी जय हो। मैं महापराक्रमी कोसलनरेश श्री रामचन्द्र जी का दास हूँ। मेरा नाम हनुमान है। मैं वायु का पुत्र शत्रुओं का संहार करने वाला हूँ। तुम मेरे पराक्रम का सामना नहीं कर सकते। मैं लंकापुरी को तहस-नहस कर डालूँगा।"
राक्षसों ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया और उन पर बर्छे, भाले तथा पत्थर फेंकने लगे। यह देख कर क्रुद्ध हो हनुमान ने कुछ की लातों-घूँसों से पिटाई की और कुछ को अपने नाखूनों तथा दाँतों से चीर डाला। बड़े-बड़े योद्धा इस मार की ताव न लाकर क्षत-विक्षत होकर भूमि पर गिर पड़े। जो अधिक साहसी थे, वे प्राणों का मोह त्याग कर हनुमान पर टूट पड़े। तभी उन्होंने एक छलाँग लगाई और तोरण द्वार से एक लोहे की छड़ निकाल ली। फिर उस छड़ से उन्होंने वह मार काट मचाई कि बहुत से योद्धा तो वहीं खेत रहे और शेष प्राण बचा कर वहाँ से भाग कर रावण के पास पहुँचे। जब रावण ने इन राक्षसों की ऐसी दशा देखी तो उसका क्रोध और भड़क उठा। उसने प्रहस्त के पुत्र जम्बुवाली को बुला कर कहा, "हे वीरश्रेष्ठ! तुम जा कर उस वानर को पकड़ कर ले आओ। यदि वह जीवित न पकड़ा जा सके तो उसे मार डालो। मुझे तुम्हारे बल पर पूरा विश्वास है कि तुम इस कार्य को भली-भाँति कर सकते हो।"
रावण की आज्ञा पाकर जम्बुवाली अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हो गधों के रथ पर सवार हो हनुमान से युद्ध करने के लिये चला। जब उसने उन्हें तोरण द्वार पर बैठे देखा तो वह दूर से ही उन पर तीक्ष्ण बाण चलाने लगा। जब कुछ बाण पवनपुत्र के शरीर को छेदने लगे तो उन्होंने पास पड़ी हुई एक पाषाणशिला को उखाड़ कर जम्बुवाली की ओर निशाना साधकर फेंका। उस विशाल शिला को अपनी ओर आते देख उस वीर राक्षस ने फुर्ती से दस बाण छोड़कर उसको चूर-चूर कर डाला। जब हनुमान ने उस शिला को इस प्रकार टूटते देखा तो उन्होंने तत्काल एक विशाल वृक्ष को उखाड़ कर राक्षसों पर आक्रमण किरना आरम्भ कर दिया जिससे बहुत से राक्षस मर कर और कुछ घायल होकर वहीं धराशायी हो गये। अपने सैनिकों को इस प्रकार मरते देख जम्बुवाली ने एक साथ चार बाण छोड़ कर उसका वृक्ष काट डाला और फिर कस बाण छोड़कर हनुमान को घायल कर दिया। जब हनुमान के शरीर से रक्तधारा प्रवाहित होने लगी तो उन्हें बहुत क्रोध आया और वे एक राक्षस से लोहे का मूसल छीन कर जम्बुवाली पर उससे धड़ाधड़ आक्रमण करने लगे जससे उसके घोड़े मर गये, रथ चकनाचूर हो गया और वह स्वयं भी निष्प्राण होकर पृथ्वी पर जा पड़ा।
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