कुत्ते का न्याय - उत्तरकाण्ड (12)

>> Monday, May 24, 2010

श्रीराम के शासन में न तो किसी को शारीरिक रोग होता था, न किसी की अकाल मृत्यु होती थी, न कोई स्त्री विधवा होती थे और न माता पिताओं को सन्तान का शोक सहना पड़ता था। सारा राज्य सब प्रकार से सुख-सम्पन्न था। इसलिये कोई व्यक्‍ति किसी प्रकार का विवाद लेकर राजदरबार में उपस्थित भी नहीं होता था। किन्तु एक दिन एक कुत्ता राजद्वार पर आकर बार-बार भौंकने लगा। उसे अभियोगी समझ राजदरबार में उपस्थित किया गया। पूछने पर कुत्ते ने बताया, "प्रभो! आपके राज्य में सर्वार्थसिद्ध नामक एक भिक्षुक है। उसने आज अकारण मुझ पर प्रहार करके मेरा मस्तक फाड़ दिया है। इसलिये मैं इसका न्याय चाहता हूँ।"

कुत्ते की बात सुनकर उस भिक्षुक ब्राह्मण को बुलवाया गया। ब्राह्मण के आने पर राजा रामचन्द्र ने पूछा, "विप्रवर! क्या आपने इस कुत्ते के सिर पर घातक प्रहार किया था? यदि किया था तो इसका क्या कारण है? वैसे ब्राह्मण को अकारण क्रोध आना तो नहीं चाहिये।"

महाराज की बात सुनकर सर्वार्थसिद्ध बोले, "प्रभो! यह सही है कि मैंने इस कुत्ते को डंडे से मारा था। उस समय मेरा मन क्रोध से भर गया था। बात यह थी कल मेरे भिक्षाटन का समय बीत चुका था, तो भी भूख के कारण मैं भिक्षा के लिये द्वार-द्वार पर भटक रहा था। उस समय यह कुत्ता बीच में आ खड़ा हुआ। मैं भूखा तो था ही, अतएव मुझे क्रोध आ गया और मैंने इसके सिर पर डंडा मार दिया। मैँ अपराधी हूँ, मुझे दण्ड दीजिये। आपसे दण्ड पाकर मुझे नरक यातना नहीं भोगनी पड़ेगी।"

जब राजा राम ने सभसदों से उसे दण्ड देने के विषय में परामर्श किया तो उन्होंने कहा, "राजन्! ब्राह्मण दण्ड द्वारा अवध्य है। इसे शारीरिक दण्ड नहीं दिया जा सकता और यह इतना निर्धन है कि आर्थिक दण्ड का भार भी नहीं उठा सकेगा।"

यह सुनकर कुत्ते ने कहा, "महाराज! यदि आप आज्ञा दें तो मैं इसके दण्ड के बारे में एक सुझाव दूँ। मेरे विचार से इसे महन्त बना दिया जाय। यदि आप इसे कालंजर के किसी मठ का मठाधीश बना दें तो यह दण्ड इसके लिये सबसे उचित होगा।"

कुत्ते का सुझाव मानकर श्रीराम ने उसे मठाधीश बना दिया और वह हाथी पर बैठकर वहाँ से प्रसन्नतापूर्वक चला गया।

उसके जाने के पश्‍चात् एक मन्त्री ने कहा, "प्रभो! यह तो उसके लिये उपहार हुआ, दण्ड नहीं।"

मन्त्री की बात सुनकर श्रीराम ने कहा, "मन्त्रिवर! यह उपहार नहीं, दण्ड ही है। इसका रहस्य तुम नहीं समझ सके हो।"

फिर कुत्ते से बोले, "श्‍वानराज! तुम इन्हें इस दण्ड का रहस्य बताओ।"

राघव की बात सुनकर कुत्ता बोला, "रघुनन्दन! पिछले जन्म में मैं कालंजर के एक मठ का अधिपति था। वहाँ मैं सदैव शुभ कर्म किया करता था। फिर भी मुझे कुत्ते की योनि मिली। यह तो अत्यन्त क्रोधी है। इसका अन्त मुझसे भी अधिक खराब होगा। मठाधीश ब्राह्मणों और देवताओं के निमित्त दिये गये द्रव्य का उपभोग करता है, इसलिये वह पाप का भागी बनता है।"

यह रहस्य बताकर कुत्ता वहाँ से चला गया।

2 टिप्पणियाँ:

रंजना May 24, 2010 at 5:55 PM  

अहहः...अतिसुन्दर और प्रेरक प्रसंग....मन आनंदित हो गया पढ़कर...

बहुत बहुत आभार आपका...

Udan Tashtari May 25, 2010 at 12:07 AM  

आभार इस आलेख के लिए.

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