त्रिशिरा, अतिकाय आदि का वध - युद्धकाण्ड (14)

>> Friday, April 2, 2010

लंकेश रावण के आज्ञानुसार उसके चार पुत्र त्रिशिरा, अतिकाय, देवान्तक तथा नरान्तक अपने दो चाचाओं महोदर एवं महापार्श्‍व के साथ युद्ध करने के लिये चले। उनके पीछे हाथियों, घुड़सवारों, रथों की एवं पैदल सेना थी। युद्धभूमि में उनका सामना करने के लिये वानरों की अपार सेना पत्थरों, शिलाओं तथा बड़े-बड़े वृक्षों को लिये तैयार खड़ी थी। राक्षस सेना को देखते ही उन्होंने भयंकर गर्जना की और वे शत्रुओं पर टूट पड़ी। वानरों के पत्थरों एवं वृक्षों द्वारा किये जाने वाले आक्रमण के प्रतिउत्तर में राक्षस बाणों, लौह-मुद्‍गरों तथा अन्य शस्त्रों से वार करने लगे। इस भयंकर युद्ध के परिणामस्वरूप थोड़ी ही देर में सम्पूर्ण रणभूमि रक्‍त-रंजित हो गई। राक्षस सेनानायकों ने इतनी भीषण मारकाट मचाई कि चारों ओर वानरों के हताहत शरीर दिखाई देने लगे। राक्षस सैनिकों की भी ऐसी ही दशा थी। उनके घायल शरीर वानरों के शरीरों के साथ मिलकर एक वीभत्स द‍ृष्य उत्पन्न कर रहे थे। जिनके अस्त्र-शस्त्र समाप्त हो जाते थे या नष्ट हो जाते थे, वे परस्पर भिड़कर लात-घूँसों का प्रयोग करने लगते थे। राक्षस वानरों की पूँछ पकड़कर उन्हीं से अन्य वानरों को मारते थे तो वानर राक्षसों की टाँगें पकड़कर उन्हें घमाते हुये अन्य राक्षसों पर वार करते थे। उस समय दोनों दल के पराक्रमी सैनिक निर्भय होकर शत्रुओं का विनाश करने में जुटे हुये थे।

जब वानर सेनानायकों ने राक्षसों को भारी संख्या में मार डाला तो रावण के पुत्र नरान्तक ने क्रोध में भरकर अपने रणकौशल का प्रदर्शन करते हुये थोड़ी ही देर में सहस्त्रों वानरों को मार गिराया। इससे वानर सेना में हाहाकार मच गया। यह हाहाकार सुन अंगद ने क्रोधित होकर नरान्तक को ललकारा। अंगद की ललकार सुनकर नरान्तक ने गरजते हुये उसके वक्ष पर प्रास का वार किया किन्तु अंगद ने फुर्ती से प्रास को तोड़कर नरान्तक के रथ पर ऐसी लात जमाई कि उसका रथ पृथ्वी पर लुढ़क गया और उसके चारों घोड़े गिरकर मर गये। नरान्तक रथ से कूद पड़ा और अंगद के सिर पर घूँसे ही घूँसे बरसाने लगा। तब अंगद ने भी बड़े जोर से उसकी छाती में घूँसा मारा जिससे उसकी आँखों की पुतलियाँ फिर गईं। वह रक्‍त वमन करता हुआ पृथ्वी पर ऐसा गिरा कि फिर वह कभी जीवित नहीं उठ सका। नरान्तक के मरते ही वानर सेना ने हर्षनाद किया।

नरान्तक के वध होते ही हाथी पर सवार रावण का भाई महोदर अंगद की ओर बढ़ा। भाई की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिये देवान्तक और त्रिशिरा भी अपने-अपने रथ दौड़ाते हुये अंगद को मारने के लिये झपटे। तीनों महारथी एक साथ अंगद पर बाण छोड़ने लगे। तीनों के आक्रमणों का मुकाबला करते हुये अंगद ने सबसे पहले महोदर के हाथी को एक ऐसी लात जमाई कि वह गम्भीर गर्जना करता हुआ मैदान से भाग निकला। अंगद ने भागते हुये हाथी के दाँत उखाड़कर उनसे ही शत्रु का संहार करना आरम्भ कर दिया। जब हनुमान ने अंगद को तीन महारथियों से घिरा देखा तो उन्होंने लपककर देवान्तक की छाती में इतने जोर का मुक्का मारा कि वह वहीं तड़पकर ठंडा हो गया। अपनी आँखों के सामने देवान्तक को इस प्रकार मरते देखकर त्रिशिरा और महोदर के नेत्रों से ज्वाला फूटने लगी। उन दोनों ने भयंकर बाणों की मार से अंगद, हनुमान सहित अनेक सेनानायकों को व्याकुल कर दिया। नील ने अपने वीरों को इस प्रकार घायल होते देख किलकिलाकर एक बहुत भारी शिलाखण्ड उखाड़ा। फिर उसे महोदर के सिर पर दे मारा। उसके नीचे महोदर पिस कर मर गया। इसके मरने पर त्रिशिरा ने वानर सेना पर एक साथ अनेक बाण छोड़े, किन्तु इस समय वानर सेना का साहस बढ़ा हुआ था और नरान्तक, देवान्तक तथा महोदर जैसे सेनापतियों के मारे जाने के कारण राक्षस सेना के पैर उखड़ने लगे थे। अवसर पाकर हनुमान ने कूदकर त्रिशिरा का सिर धड़ से अलग कर दिया। इस प्रकार चार महारथियों के मारे जाने पर महापार्श्‍व ने क्रोध से उन्मत्त होकर लोहे की भारी गदा से वानरों पर वार करना आरम्भ कर दिया। देखते ही देखते बीसियों वानर उसकी क्रोधाग्नि में जलकर स्वाहा हो गये। उस समय उसकी रक्‍तरंजित गदा प्रलयंकर अग्नि की भाँति वानरों को अपना ग्रास बना रही थी। इस पर ऋषभ नामक तेजस्वी वानर योद्धा ने क्रुद्ध होकर महापार्श्‍व को बड़ी जोर से लात मारी। उस आघात को न सह सकने के कारण महापार्श्‍व पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसके गिरते ही वानर सेना ने चारों ओर से उसे घेरकर उसका शरीर नखों और दाँतों से फाड़ डाला जिससे वह तड़प-तड़प कर मर गया।

इन पाँचों महारथियों की मृत्यु से सेनापति अतिकाय को बड़ा क्रोध और क्षोभ हुआ। वह अपना विशाल रथ लेकर वानर सेना में घुस आया। उसे अपने बल पर बड़ा गर्व था क्योंकि वह अनेक बार देवताओं और दानवों को लोहे के चने चबवा चुका था। उसके भयंकर संहार से त्रस्त वानर सैनिक त्राहि-त्राहि करते हुये रामचन्द्र जी के पास पहुँचे। उसके विराट रूप और अद्‍भुत रणकौशल को देखकर उन्होंने विभीषण से पूछा, "हे विभीषण! यह पर्वताकार अद्‍भुत वीर सेनानी कौन है जो वानर सेना का प्रलयंकर विनाश कर रहा है?"

विभीषण ने बताया, "यह रावण का पुत्र अतिकाय है। मन्दोदरी इसकी माता है। साहस और पराक्रम में यह रावण से किसी भी प्रकार कम नहीं है। इसने अपनी तपस्या के बल पर दिव्य कवच तथा रथ प्राप्त किये हैं। सहस्त्रों बार इसने देवताओं और दानवों को परास्त किया है। इसलिये आप इसे मारने का शीघ्र ही उपाय करें, अन्यथा यह हमारी सम्पूर्ण सेना का विनाश कर देगा।"

इतने में वानर सेना में अभूतपूर्व मारकाट मचाता हुआ अतिकाय रामचन्द्र जी के पास अपना रथ दौड़ाता आ पहुँचा और उनसे क्रोध तथा गर्वपूर्वक बोला, "हे तुच्छ मनुष्यों! तुम दोनों भाई मेरे हाथों से क्यों इन बेचारे वानरों का नाश कराते हो? इन्हें मारने में न तो मेरा पराक्रम है और न मेरी कीर्ति ही है। इसलिये मैं तुमसे कहता हूँ कि यदि तुममें युद्ध करने की क्षमता और साहस हो तो मेरे साथ युद्ध करो अन्यथा लौट जाओ और वानर सेना से युद्ध बन्द करने के लिये कह दो।"

अतिकाय के दर्प भरे इन वचनों को सुन कर लक्ष्मण बोले, "अरे राक्षस! तू बढ़-चढ़ जितनी बातें बना रहा है, उतना वीर तो तू दिखाई नहीं देता। तेरा सिर तेरे धड़ से मैं उसी प्रकार अलग कर दूँगा जिस प्रकार आँधी पके हुये ताड़ के फल को गिरा देती है। संभाल अपने अस्त्र-शस्त्र और देख, मेरे बाण तेरे वक्ष का कैसे रक्‍तपान करते हैं। लक्ष्मण के ये कठोर वचन सुनकर अतिकाय ने क्रुद्ध हो एक जलता हुआ बाण उन पर छोड़ा। लक्ष्मण ने उस सर्पाकार बाण को अपने अर्द्धचन्द्राकार बाण से काटकर दूसरा अग्निबान उसके मस्तक को लक्ष्य करके छोड़ा जो सीधा उसके मस्तक में घुस गया जिससे रक्‍त का फौवारा छूट निकला। एक बार तो वह थर्रा गया, किन्तु शीघ्र ही संभलकर वह फिर आक्रमण करने लगा। दोनों ही वीर अपनी-अपनी रक्षा करते हुये अद्‍भुत रणकौशल का परिचय देने लगे। अतिकाय बार-बार सिंह गर्जना करके लक्ष्मण को आतंकित करना चाहता था, किन्तु इस गर्जना का उन पर उल्टा ही प्रभाव पड़ रहा था। जितना ही वह अधिक जोर से गरजता, उतने ही अधिक कौशल और स्फूर्ति से लक्ष्मण बाणों की वर्षा करते। जब अतिकाय का हस्तलाघव क्षीण होता दिखाई नहीं दिया तो लक्ष्मण ने क्रुद्ध होकर उस पर ब्रह्मशक्‍ति छोड़ी। अतिकाय ने उसे प्रत्याक्रमण करके रोकने का निष्फल प्रयास किया। उस ब्रह्मशक्‍ति ने अतिकाय का सिर काटकर उड़ा दिया। उसके मरते ही राक्षस सेना निराश होकर मैदान छोड़ गई।

6 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari April 2, 2010 at 10:26 PM  

आभार इस कथा का.

Satvik Garg April 14, 2020 at 1:51 AM  
This comment has been removed by the author.
Satvik Garg April 14, 2020 at 1:55 AM  
This comment has been removed by the author.
Satvik Garg April 14, 2020 at 1:58 AM  

Aapko hridey se sadhuvad . .

1 vinti hai bhagwan k bhakto Ka naam bhi aadarpurvak ( Lakshman ji , Hanuman ji , Angad ji , Rishabh ji ) lena chaiye . . Bhaktaapradh k paap se bachna chaiye . . Kyuki bhagwan apne bhakto k prati kiye apradh ko kabi khshma nhi krte . .

Jai ho Shri Ram Raja Sarkar . .

Unknown April 15, 2020 at 9:06 PM  

इस कथा में अतिकाय की माता का नाम मंदोदरी लिखा है
जो कि गलत है।

Unknown July 29, 2020 at 8:43 PM  

Atikaya ki ma ka name DHANYAMALNI tha.

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