लक्ष्मण का परित्याग एवं महाप्रयाण - उत्तरकाण्ड (25)

>> Wednesday, June 9, 2010

जब इस प्रकार राज्य करते हुये श्रीरघुनाथजी को बहुत वर्ष व्यतीत हो गये तब एक दिन काल तपस्वी के वेश में राजद्वार पर आया। उसने सन्देश भिजवाया कि मैं महर्षि अतिबल का दूत हूँ और अत्यन्त आवश्यक कार्य से श्री रामचन्द्र जी से मिलना चाहता हूँ। सन्देश पाकर राजचन्द्रजी ने उसे तत्काल बुला भेजा। काल के उपस्थित होने पर श्रीराम ने उन्हें सत्कारपूर्वक यथोचित आसन दिया और महर्षि अतिबल का सन्देश सनाने का आग्रह किया। यह सुनकर मुनिवेषधारी काल ने कहा, "यह बात अत्यन्त गोपनीय है। यहाँ हम दोनों के अतिरिक्‍त कोई तीसरा व्यक्‍ति नहीं रहना चाहिये। मैं आपको इसी शर्त पर उनका सन्देश दे सकता हूँ कि यदि बातचीत के समय कोई व्यक्‍ति आ जाये तो आप उसका वध कर देंगे।"

श्रीराम ने काल की बात मानकर लक्ष्मण से कहा, "तुम इस समय द्वारपाल को विदा कर दो और स्वयं ड्यौढ़ी पर जाकर खड़े हो जाओ। ध्यान रहे, इन मुनि के जाने तक कोई यहाँ आने न पाये। जो भी आयेगा, मेरे द्वारा मारा जायेगा।"

जब लक्ष्मण वहाँ से चले गये तो उन्होंने काल से महर्षि का सन्देश सुनाने के लिये कहा। उनकी बात सुनकर काल बोला, "मैं आपकी माया द्वारा उत्पन्न आपका पुत्र काल हूँ। ब्रह्मा जी ने कहलाया है कि आपने लोकों की रक्षा करने के लिये जो प्रतिज्ञा की थी वह पूरी हो गई। अब आपके स्वर्ग लौटने का समय हो गया है। वैसे आप अब भी यहाँ रहना चाहें तो आपकी इच्छा है।"

यह सुनकर श्रीराम ने कहा, "जब मेरा कार्य पूरा हो गया तो फिर मैं यहाँ रहकर क्या करूँगा? मैं शीघ्र ही अपने लोक को लौटूँगा।"

जब काल रामचन्द्र जी से इस प्रकार वार्तालाप कर रहा था, उसी समय राजप्रासाद के द्वार पर महर्षि दुर्वासा रामचन्द्र से मिलने आये। वे लक्ष्मण से बोले, "मुझे तत्काल राघव से मिलना है। विलम्ब होने से मेरा काम बिगड़ जायेगा। इसलिये तुम उन्हें तत्काल मेरे आगमन की सूचना दो।"

लक्ष्मण बोले, "वे इस समय अत्यन्त व्यस्त हैं। आप मुझे आज्ञा दीजिये, जो भी कार्य हो मैं पूरा करूँगा। यदि उन्हीं से मिलना हो तो आपको दो घड़ी प्रतीक्षा करनी होगी।"

यह सुनते ही मुनि दुर्वासा का मुख क्रोध से तमतमा आया और बोले, "तुम अभी जाकर राघव को मेरे आगमन की सूचना दो। यदि तुम विलम्ब करोगे तो मैं शाप देकर समस्त रघुकुल और अयोध्या को अभी इसी क्षण भस्म कर दूँगा।"

ऋषि के क्रोधयुक्‍त वचन सुनकर लक्ष्मण सोचने लगे, चाहे मेरी मृत्यु हो जाये, रघुकुल का विनाश नहीं होना चाहिये। यह सोचकर उन्होंने रघुनाथजी के पास जाकर दुर्वासा के आगमन का समाचार जा सुनाया। रामचन्द्र जी काल को विदा कर महर्षि दुर्वासा के पास पहुँचे। उन्हें देखकर दुर्वासा ऋषि ने कहा, "रघुनन्दन! मैंने दीर्घकाल तक उपवास करके आज इसी क्षण अपना व्रत खोलने का निश्‍चय किया है। इसलिये तुम्हारे यहाँ जो भी भोजन तैयार हो तत्काल मँगाओ और श्रद्धापूर्वक मुझे खिलाओ।"

रामचन्द्र जी ने उन्हें सब प्रकार से सन्तुष्ट कर विदा किया। फिर वे काल कि दिये गये वचन को स्मरण कर भावी भ्रातृ वियोग की आशंका से अत्यन्त दुःखी हुये।

अग्रज को दुःखी देख लक्ष्मण बोले, "प्रभु! यह तो काल की गति है। आप दुःखी न हों और निश्‍चिन्त होकर मेरा वध करके अपनी प्रतिज्ञा पूरी करें।"

लक्ष्मण की बात सुनकर वे और भी व्याकुल हो गये। उन्होंने गुरु वसिष्ठ तथा मन्त्रियों को बुलाकर उन्हें सम्पूर्ण वृतान्त सुनाया। यह सुनकर वसिष्ठ जी बोले, "राघव! आप सबको शीघ्र ही यह संसार त्याग कर अपने-अपने लोकों को जाना है। इसका प्रारम्भ सीता के प्रस्थान से हो चुका है। इसलिये आप लक्ष्मण का परित्याग करके अपनी प्रतिज्ञा पूरी करें। प्रतिज्ञा नष्ट होने से धर्म का लोप हो जाता है। साधु पुरुषों का त्याग करना उनके वध करने के समान ही होता है।"

गुरु वसिष्ठ की सम्मति मानकर श्री राम ने दुःखी मन से लक्ष्मण का परित्याग कर दिया। वहाँ से चलकर लक्ष्मण सरयू के तट पर आये। जल का आचमन कर हाथ जोड़, प्राणवायु को रोक, उन्होंने अपने प्राण विसर्जन कर दिये।।

महाप्रयाण

लक्ष्मण का त्याग करके अत्यन्त शोक विह्वल हो रघुनन्दन ने पुरोहित, मन्त्रियों और नगर के श्रेष्ठिजनों को बुलाकर कहा, "आज मैं अयोधया के सिंहासन पर भरत का अभिषेक कर स्वयं वन को जाना चाहता हूँ।"

यह सुनते ही सबके नेत्रों से अश्रुधारा बह चली। भरत ने कहा, "मैं भी अयोध्या में नहीं रहूँगा, मैं आपके साथ चलूँगा। आप कुश और लव का अभिषेक कीजिये।"

प्रजाजन भी कहने लगे कि हम सब भी आपके साथ चलेंगे।

कुछ क्षण विचार करके उन्होंने दक्षिण कौशल का राज्य कुश को और उत्तर कौशल का राज्य लव को सौंपकर उनका अभिषेक किया। कुश के लिये विन्ध्याचल के किनारे कुशावती और लव के लिये श्रावस्ती नगरों का निर्माण कराया फिर उन्हें अपनी-अपनी राजधानियों को जाने का आदेश दिया। इसके पश्‍चात् एक द्रुतगामी दूत भेजकर मधुपुरी से शत्रघ्न को बुलाया। दूत ने शत्रुघ्न को लक्ष्मण के त्याग, लव-कुश के अभिषेक आदि की सारी बातें भी बताईं। इस घोर कुलक्षयकारी वृतान्त को सुनकर शत्रुघ्न अवाक् रह गये। तदन्तर उन्होंने अपने दोनों पुत्रों सुबाहु और शत्रुघाती को अपना राज्य बाँट दिया। उन्होंने सबाहु को मधुरा का और शत्रुघाती को विदिशा का राज्य सौंप तत्काल अयोध्या के लिये प्रस्थान किया। अयोध्या पहुँचकर वे बड़े भाई से बोले, "मैं भी आपके साथ चलने के लिये तैयार होकर आ गया हूँ। कृपया आप ऐसी कोई बात न कहें जो मेरे निश्‍चय में बाधक हो।"

इसी बीच सुग्रीव भी आ गये और उन्होंने बताया कि मैं अंगद का राज्यभिषक करके आपके साथ चलने के लिये आया हूँ। उनकी बात सुनकर रामचन्द्रजी मुस्कुराये और बोले, "बहुत अच्छा।"

फिर विभीषण से बोले, "विभीषण! मैं चाहता हूँ कि तुम इस संसार में रहकर लंका में राज्य करो। यह मेरी हार्दिक इच्छा है। आशा है, तुम इसे अस्वीकार नहीं करोगे।"

विभीषण ने भारी मन से रामचन्द्र जी का आदेश स्वीकार कर लिया। श्रीराम ने हनुमान को भी सदैव पृथ्वी पर रहने की आज्ञा दी। जाम्बवन्त, मैन्द और द्विविद को द्वापर तथा कलियुग की सन्धि तक जीवित रहने का आदेश दिया।

अगले दिन प्रातःकाल होने पर धर्मप्रतिज्ञ श्री रामचन्द्र जी ने गुरु वसिष्ठ जी की आज्ञा से महाप्रस्थानोचित सविधि सब धर्मकृत्य किये। तत्पश्‍चात् पीताम्बर धारण कर हाथ में कुशा लिये राम ने वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के साथ सरयू नदी की ओर प्रस्थान किया। नंगे पैर चलते हुये वे सूर्य के समान प्रकाशमान मालूम पड़ रहे थे। उस समय उनके दक्षिण भाग में साक्षात् लक्ष्मी, वाम भाग में भूदेवी और उनके समक्ष संहार शक्‍ति चल रही थी। उनके साथ बड़े-बड़े ऋषि-मुनि और समस्त ब्राह्मण मण्डली थी। वे सब स्वर्ग का द्वार खुला देख उनके साथ चले जाते थे। उनके साथ उनके राजमहल के सभी आबालवृद्ध स्त्री-पुरुष भी चल रहे थे। भरत व शत्रुघ्न भी अपने-अपने रनवासों के साथ श्रीराम के संग-संग चल रहे थे। सब मन्त्री तथा सेवकगण अपने परिवारों सहित उनके पीछे हो लिये। उन सबके पीछे मानो सारी अयोध्या ही चल रही थी। मस्त ऋक्ष ‌और वानर भी किलकारियाँ मारते, उछलते-कूदते, दौड़ते हुये चले। इस समस्त समुदाय में कोई भी दुःखी अथवा उदास नहीं था, बल्कि सभी इस प्रकार प्रफुल्लित थे जैसे छोटे बच्चे मनचाहा खिलौना पाने पर प्रसन्न होते हैं। इस प्रकार चलते हुये वे सरयू नदी के पास पहुँचे।

उसी समय सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी सब देवताओं और ऋषियों के साथ वहाँ आ पहुँचे। श्रीराम को स्वर्ग ले जाने के लिये करोड़ों विमान भी वहाँ उपस्थित हुये। उस समय समस्त आकाशमण्डल दिव्य तेज से दमकने लगा। शीतल-मंद-सुगन्धित वायु बहने लगी, आकाश में गन्धर्व दुन्दुभियाँ बजाने लगे, अप्सराएँ नृत्य करने लगीं और देवतागण फूल बरसाने लगे। श्रीरामचन्द्रजी ने सभी भाइयों और साथ में आये जनसमुदाय के साथ पैदल ही सरयू नदी में प्रवेश किया। तब आकाश से ब्रह्माजी बोले, "हे राघव! हे विष्णु! आपका मंगल हो। हे विष्णुरूप रघुनन्दन! आप अपने भाइयों के साथ अपने स्वरुपभूत लोक में प्रवेश करें। चाहें आप चतुर्भुज विष्णु रूप धारण करें और चाहें सनातन आकाशमय अव्यक्‍त ब्रह्मरूप में रहें।"

पितामह ब्रह्मा जी की स्तुति सुनकर श्रीराम वैष्णवी तेज में प्रविष्ट हो विष्णुमय हो गये। सब देवता, ऋषि-मुनि, मरुदगण, इन्द्र और अग्नदेव उनकी पूजा करने लगे। नाग, यक्ष, किन्नर, अप्सराएँ तथा राक्षस आदि प्रसन्न हो उनकी स्तुति करने लगे। तभी विष्णुरूप श्रीराम ब्रह्माजी से बोले, "हे सुव्रत! ये जितने भी जीव स्नेहवश मेरे साथ चले आये हैं, ये सब मेरे भक्‍त हैं, इस सबको स्वर्ग में रहने के लिये उत्तम स्थान दीजिये। ब्रह्मा जी ने उन सबको ब्रह्मलोक के समीप स्थित संतानक नामक लोक में भेज दिया। वानर और ऋक्ष आदि जिन-जिन देवताओं के अंश से उत्पन्न हुये थे, वे सब उन्हीं में लीन हो गये। सुग्रीव ने सूर्यमण्डल में प्रवेश किया। उस समय जिसने भी सरयू में डुबकी लगाई वहीं शरीर त्यागकर परमधाम का अधिकारी हो गया।

रामायण की महिमा

लव और कुश ने कहा, "महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण महाकाव्य यहाँ समाप्त होता है। यह महाकाव्य आयु तथा सौभाग्य को बढ़ाता है और पापों का नाश करता है। इसका नियमित पाठ करने से मनुष्य की सभी कामनाएँ पूरी होती हैं और अन्त में परमधाम की प्राप्ति होती है। सूर्यग्रहण के समय कुरुक्षेत्र में एक भार स्वर्ण का दान करने से जो फल मिलता है, वही फल प्रतिदिन रामायण का पाठ करने या सुनने से होता है। यह रामायण काव्य गायत्री का स्वरूप है। यह चरित्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों को देने वाला है। इस प्रकार इस पुरान महाकाव्य का आप श्रद्धा और विश्‍वास के साथ नियमपूर्वक पाठ करें। आपका कल्याण होगा।

॥वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड समाप्त॥

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सीता का रसातल प्रवेश - उत्तरकाण्ड (24)

>> Tuesday, June 8, 2010

आगे की कथा आरम्भ करने के पूर्व एक सन्देशः मित्रों, "संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण" की कथा अपने अन्तिम चरणों में पहुँच गई है और कल यह पूर्ण हो जायेगी।

आप लोगों के इस प्रगाढ़ स्नेह ने अब मुझे गोस्वामी तुलसीदास कृत "रामचरितमानस" पर ब्लोग बनाने की प्रेरणा दी है परिणामस्वरूप मैंने "रामचरितमानस कथा" ब्लोग आरम्भ किया है। आशा है कि मेरा यह नया ब्लोग भी आप सभी को पसन्द आयेगा।
सीता के त्याग और तपस्या का वृतान्त सुनकर रामचन्द्रजी ने अपने विशिष्ट दूत के द्वारा महर्षि वाल्मीकि के पास सन्देश भिजवाया, "यदि सीता का चरित्र शुद्ध है और वे आपकी अनुमति ले यहाँ आकर जन समुदाय में अपनी शुद्धता प्रमाणित करें और मेरा कलंक दूर करने के लिये शपथ करें तो मैं उनका स्वागत करूँगा।"

यह सन्देश सुनकर वाल्मीकि ने कहलवाया, "ऐसा ही होगा। सीता वही करेंगीं जो श्रीराम चाहेंगे क्योंकि पति स्त्री के लिये परमात्मा होता है।"

यह उत्तर पाकर सीता शपथ के अवसर पर राजा राम ने सब ऋषि-मुनियों, नगरवासियों आदि को उस समय सभागार में उपस्थित रहने के लिये निमन्त्रित किया।

दूसरे दिन सीता जी का शपथ ग्रहण देखने के लिये नाना देशों से पधारे ऋषि-मुनि, विद्वान, नागरिक सहस्त्रों की संख्या में उस सभा भवन में आकर उपस्थित हो गये। निश्‍चित समय पर वाल्मीकि सीता को लेकर आये। आगे-आगे महर्षि वाल्मीकि थे और उनके पीछे दोनों हाथ जोड़े, नेत्रों में आँसू बहाती सीता आ रही थीं। वे मन ही मन श्रीराम का चिन्तन कर रही थीं। उस समय महर्षि के पीछे आती हुई सीता इस प्रकार जान पड़ती थीं मानो सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी के पीछे श्रुति चली आ रही हो। काषायवस्त्रधारिणी सीता की दीन-हीन दशा देखकर वहाँ उपस्थित सभी लोगों का हृदय दुःख से भर आया और वे शोक से विकल हो आँसू बहाने लगे।

वाल्मीकि बोले, "श्रीराम! मैं तुम्हें विश्‍वास दिलाता हूँ कि सीता पवित्र और सती है। कुश और लव आपके ही पुत्र हैं। मैं कभी मिथ्याभाषण नहीं करता। यदि मेरा कथन मिथ्या हो तो मेरी सम्पूर्ण तपस्या निष्फल हो जाय। मेरी इस साक्षी के बाद सीता स्वयं शपथपूर्वक आपको अपनी निर्दोषिता का आश्‍वासन देंगीं।"

महर्षि के इन उत्तम वचनों को सुनकर और सभा के मध्य में जानकी को प्रांजलिभूत खड़ी देखकर रघुनन्दन बोले, "हे ऋषिश्रेष्ठ! आपका कथन सत्य है और आपके निर्दोष वचनों पर मुझे पूर्ण विश्‍वास है। वास्तव में वैदेही ने अपनी सच्चरित्रता का विश्‍वास मुझे अग्नि के समक्ष दिला दिया था परन्तु लोकापवाद के कारण ही मुझे इन्हें त्यागना पड़ा। आप मुझे इस अपराध के लिये क्षमा करें।"

तत्पश्‍चात् श्रीराम सभी ऋषि-मुनियों, देवताओं और उपस्थित जनसमूह को लक्ष्य करके बोले, "हे मुनि एवं विज्ञजनों! मुझे महर्षि वाल्मीकि जी के कथन पर पूर्ण विश्‍वास है परन्तु यदि सीता स्वयं सबके समक्ष अपनी शुद्धता का पूर्ण विश्‍वास दें तो मुझे प्रसन्नता होगी।"

राम का कथन समाप्त होते ही सीता हाथ जोड़कर, नेत्र झुकाये बोलीं, "मैंने अपने जीवन में यदि श्रीरघुनाथजी के अतिरिक्‍त कभी किसी दूसरे पुरुष का चिन्तन न किया हो तो मेरी पवित्रता के प्रमाणस्वरूप भगवती पृथ्वी देवी अपनी गोद में मुझे स्थान दें।"

सीता के इस प्रकार शपथ लेते ही पृथ्वी फटी। उसमें से एक सिंहासन निकला। उसी के साथ पृथ्वी की अधिष्ठात्री देवी भी दिव्य रूप में प्रकट हुईं। उन्होंने दोनों भुजाएँ बढ़ाकर स्वागतपूर्वक सीता को उठाया और प्रेम से सिंहासन पर बिठा लिया। देखते-देखते सीता सहित सिंहासन पृथ्वी में लुप्त हो गया। सारे दर्शक स्तब्ध से यह अभूतपूर्व द‍ृश्य देखते रहे। सम्पूर्ण वातावरण मोहाच्छन्न सा हो गया।

इस सम्पूर्ण घटना से राम को बहुत दुःख हुआ। उनके नेत्रों से अश्रु बहने लगे। वे दुःखी होकर बोले, "मैं जानता हूँ, माँ वसुन्धरे! तुम ही सीता की सच्ची माता हो। राजा जनक ने हल जोतते हुये तुमसे ही सीता को पाया था, परन्तु तुम मेरी सीता को मुझे लौटा दो या मुझे भी अपनी गोद में समा लो।"

श्रीराम को इस प्रकार विलाप करते देख ब्रह्मादि देवताओं ने उन्हें नाना प्रकार से सान्त्वना देकर समझाया।

भरत व लक्ष्मण के पुत्रों के लिये राज्य व्यवस्था

यज्ञ की समाप्ति पर सुग्रीव, विभीषण आदि सहित राजाओं तथा ऋषि-मुनियों एवं निमन्त्रित जनों को अयोध्यापति राम ने सब प्रकार से सन्तुष्ट कर विदा किया। इसके पश्‍चात् उन्होंने राजकाज में मन लगाया। प्रजा का पालन करते हुये उन्होंने असंख्य यज्ञ एवं धार्मिक अनुष्ठान किये। उनके राज्य की महिमा दूर-दूर तक फैल रही थी। प्रजा सब प्रकार से सुखी और सम्पन्न थी पुत्रों एवं पौत्रों की समृद्धि एवं श्रद्धा से घिरी हुई माता कौसल्या ने इस संसार का त्याग किया। उनकी मृत्यु के पश्‍चात् कैकेयी, सुमित्रा भी परलोकगामिनी हो गईं।

भरत के पुत्र तक्ष और पुष्कल जब बड़े हुये तो कैकेयनरेश तथा भरत के मामा युधाजित ने श्रीराम के पास सन्देश भेजा कि सिन्धु नदी के दोनों तटों पर गन्धर्व देश बसा हुआ है। उस प्रदेश में गन्धर्वराज शैलूष अपने तीन करोड़ महापराक्रमी गन्धर्वों के साथ राज्य करते हैं। यदि आप उस प्रदेश को जीत कर सिन्धु देश के दोनों ओर के प्रान्तों को तक्ष और पुष्कल को सौंप दें तो अति उत्तम हो। कैकेय नरेश की आज्ञा को शिरोधार्य कर श्रीराम ने भरत को गन्धर्व देश पर आक्रमण का आदेश दिया। कैकेय नरेश युधाजित भी अपनी सेना लेकर भरत के साथ आ मिले।

दोनों सेनाओं ने मिलकर गन्धर्वों की राजधानी पर धावा बोल दिया। दोनों ओर की सेनाएँ भयंकर गर्जन-तर्जन करती हुई परस्पर युद्ध करने लगी। देखते-देखते समर भूमि में रक्‍त की नदियाँ बह गईं। सैनिकों के रुण्ड-मुण्ड उस शोणित-सरिता में जल-जन्तुओं की भाँति बहते दिखाई देने लगे। सात दिन तक यह भयानक युद्ध चलता रहा। अन्तिम दिन वीर भरत ने संवर्त नामक अस्त्र का प्रयोग करके गन्धर्व सेना का सर्वनाश कर दिया। इस प्रकार गन्धर्वों को परास्त कर भरत ने दो सुन्दर नगरों की स्थापना की। एक का नाम तक्षशिला रखा और तक्ष को वहाँ का राजा बनाया। दूसरे का नाम पुष्कलावत रखकर उस पुष्कल को सौंप दिया। नये अधिपतियों के शासन में दोनों नगरों ने अभूतपूर्व उन्नति की। पाँच वर्ष पश्‍चात् भरत अयोध्या लौट आये।

इसके पश्‍चात् श्रीरामचन्द्र ने भरत के परामर्श से लक्ष्मण के पुत्र अंगद के लिये कारूमथ में और चन्द्रकान्त के लिये चन्द्रकान्त नगर का निर्माण किया और उन्हें वहाँ का राजा बनाया। राजाकाज की समुचित व्यवस्था करने के लिये उन्होंने अंगद के साथ लक्ष्मण को और चन्द्रकान्त के साथ भरत को भेजा जो एक वर्ष तक वहाँ का समुचित प्रबन्ध करके अयोध्या लौट आये।

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लव-कुश द्वारा रामायण गान - उत्तरकाण्ड (23)

जब लव-कुश अपने रामायण गान से पुरवासियों एवं आगन्तुकों का मन मोहने लगे तब एक दिन श्रीराम ने उन दोनों बालकों को अपनी राजसभा में बुलाया। उस समय राजसभा में श्रेष्ठ नैयायिक, दर्शन एवं कल्पसूत्र के विद्वान, संगीत तथा छन्द कला मर्मज्ञ, विभिन्न शास्त्रों के ज्ञाता, ब्रह्मवेत्ता आदि मनीषि विद्यमान थे। लव-कुश को देखकर सबको ऐसा प्रतीत होता था मानो दोनों श्रीराम के ही प्रतिरूप हैं। यदि इनके सिर पर जटाजूट और शरीर पर वल्कल न होते तो इनमें और श्रीराम में कोई अन्तर दिखाई न देता। दोनों भाइयों ने अपराह्न तक प्रारम्भिक बीस सर्गों का गान किया और उस दिन का कार्यक्रम समाप्त किया। पाठ समाप्त होने पर श्रीराम ने भरत को आदेश दिया कि दोनों भाइयों को अट्ठारह हजार स्वर्ण मुद्राएँ दी जायें, किन्तु लव-कुश ने उसे लेने से इन्कार कर दिया और कहा कि हम वनवासी हैं, हमें धन की क्या आवश्यकता है? इससे श्रीराम सहित सब श्रोताओं को भारी आश्‍चर्य हुआ। उन्होंने पूछा, "यह काव्य किसने लिखा है और इसमें कितने श्‍लोक हैं?"

यह सुनकर उन मुनिकुमारों ने बताया, "महर्षि वाल्मीकि ने इस महाकाव्य की रचना की है। इसमें चौबीस हजार श्‍लोक और एक सौ उपाख्यान हैं। इसमें कुल पाँच सर्ग और छः काण्ड हैं। इसके अतिरिक्‍त उत्तरकाण्ड इसका सातवाँ काण्ड है। आपका चरित्र ही इस महाकाव्य का विषय है।"

यह सुनकर रघुनाथ जी ने यज्ञ समाप्त होने के पश्‍चात् सम्पूर्ण महाकाव्य सुनने की इच्छा प्रकट की। इस काव्य-कथा को सुनकर उन्हें पता चला कि कुश और लव सीता के ही सुपुत्र हैं।

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अश्‍वमेध यज्ञ का अनुष्ठान - उत्तरकाण्ड (22)

>> Monday, June 7, 2010

सब भाइयों के आग्रह को मानकर रामचन्द्र जी ने वसिष्ठ, वामदेव, जाबालि, कश्यप आदि ऋषियों को बुलाकर परामर्श किया। उनकी स्वीकृति मिल जाने पर वानरराज सुग्रीव को सन्देश भेजा गया कि वे विशाल वानर सेना के साथ यज्ञोत्सव में भाग लेने के लिये आवें। फिर विभीषण सहित अन्य राज-महाराजाओं को भी इसी प्रकार के सन्देश और निमन्त्रण भेजे गये। संसार भर के ऋषि-महर्षियों को भी सपरिवार आमन्त्रित किया गया। कुशल कलाकारों द्वारा नैमिषारण्य में गोमती तट पर विशाल एवं कलापूर्ण यज्ञ मण्डप बनाने की व्यवस्था की गई। विशाल हवन सामग्री के साथ आगन्तुकों के भोजन, निवास आदि के लिये बहुत बड़े पैमाने पर प्रबन्ध किया गया। नैमिषारण्य में दूर-दूर तक बड़े-बड़े बाजार लगवाये गये। सीता की सुवर्णमय प्रतिमा बनवाई गई। लक्ष्मण को एक विशाल सेना और शुभ लक्षणों से सम्पन्न कृष्ण वर्ण अश्‍व के साथ विश्‍व भ्रमण के लिये भेजा गया।

देश-देश के राजाओं ने श्रीराम को अद्‍भुत उपहार भेंट करके अपने पूर्ण सहयोग का आश्‍वासन दिया। आगत याचकों को मनचाही वस्तुएँ संकेतमात्र से ही दी जा रही थीं। उस यज्ञ को देखकर ऋषि-मुनियों का कहना था कि ऐसा यज्ञ पहले कभी नहीं हुआ। यह यज्ञ एक वर्ष से भी अधिक समय तक चलता रहा। इस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिये महर्षि वाल्मीकि भी अपने शिष्यों सहित पधारे। जब उनके निवास की समुचित व्यवस्था हो गई तो उन्होंने अपनरे दो शिष्यों लव और कुश को आज्ञा दी कि वे दोनों भाई नगर में सर्वत्र घूमकर रामायण काव्य का गान करें। उनसे यह भी कहा कि जब तुमसे कोई पूछे कि तुम किसके पुत्र हो तो तुम केवल इतना कहना कि हम ऋषि वाल्मीकि के शिष्य हैं। यह आदेश पाकर सीता के दोनों पुत्र रामायण का सस्वर गान करने के लिये चल पड़े।

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राजा इल की कथा - उत्तरकाण्ड (21)

>> Saturday, June 5, 2010

जब लक्ष्मण ने अश्‍वमेघ यज्ञ के विशेष आग्रह किया तो श्री रामचन्द्र जी अत्यन्त प्रसन्न हुये और बोले, "हे सौम्य! इस विषय में मैं तुम्हें राजा इल की कथा सुनाता हूँ। प्रजापति कर्दम के पुत्र इल वाह्लीक देश के राजा थे। एक समय शिकार खेलते हुये वे उस स्थान पर जा पहुँचे जहाँ स्वामी कार्तिकेय का जन्म हुआ था और भगवान शंकर अपने सेवकों के साथ पार्वती का मनोरंजन करते थे। उस प्रदेश में शिव की माया से सभी प्राणी स्त्री वर्ग के हो गये थे। नर पशु-पक्षी या मनुष्य कोई भी दृष्टिगत नहीं होता था। राजा इल ने भी सैनिकों सहित स्वयं को वहाँ स्त्री रूप में परिणित होते देखा। इससे भयभीत होकर वे शंकर जी के शरणागत हुये और उनसे पुरुषत्व प्रदान करने की प्रार्थना करने लगे।

"जब भगवान शंकर ने उनकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की तो उन्होंने व्याकुल होकर, गिड़गिड़ा कर उमा से प्रार्थना की। इससे प्रसन्न होकर उमा ने कहा कि मैं भगवान शंकर की केवल अर्द्धांगिनी हूँ। इलिये मैं तुम्हें तुम्हारे जीवन के केवल आधे काल के लिये पुरुष बना सकती हूँ। बोलो, तुम अपनी आयु के पूर्वार्द्ध के लिये पुरुषत्व चाहते हो या उत्तरार्द्ध के लिये? इल कुछ क्षण सोचकर बोले कि देवि! ऐसा कर दीजिये कि मैं एक मास पुरुष और एक मास स्त्री रहा करूँ। पार्वती जी ने 'तथास्तु' कहकर उनकी इच्छा पूरी कर दी। इस वरदान के फलस्वरूप इल प्रथम मास में त्रिभुवन सुन्दरी नारी बन गये तथा इल से इला कहलाने लगे। इल उक्‍त क्षेत्र से निकलकर उस सरोवर पर पहुँचे जहाँ सोमपुत्र बुध तपस्या कर रहे थे। इला पर द‍ृष्टि पड़ते ही बुध उस पर आसक्‍त हो गये एवं उसके साथ रमण करने लगे। उन्होंने राजा के साथ आये स्त्रीरूपी सैनिकों का वृतान्त जानकर उन्हें किंपुरुषी (किन्नरी) होकर पर्वत के किनारे रहने का निर्देश दिया। उन्होंने आग्रह करके इल को एक वर्ष के लिये वहीं रोक लिया।

"एक मास पश्‍चात् इला ने इल के रूप में पुरुषत्व प्राप्त किया। अगले मास वे फिर नारी बन गये। इसी प्रकार यह क्रम चलता रहा और नवें मास में इला ने पुरुरवा को जन्म दिया। अन्त में इल को इस रूप परिवर्तन से मुक्‍ति दिलाने के लिये बुध ने महात्माओं से विचार विमर्श करके शिव जी को विशेष प्रिय लगने वाला अश्‍वमेघ यज्ञ कराया। इससे प्रसन्न होकर शिव जी ने राजा इल को स्थाई रूप से पौरुष प्रदान किया।"

श्री रामचन्द्र जी बोले, "हे महाबाहु! वास्तव में अश्‍वमेघ यज्ञ अमित प्रभाव वाला है।"

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वृत्रासुर की कथा - उत्तरकाण्ड (20)

>> Friday, June 4, 2010

एक दिन श्रीरामचन्द्रजी ने भरत और लक्ष्मण को अपने पास बुलाकर कहा, "हे भाइयों! मेरी इच्छा राजसूय यज्ञ करने की है क्योंकि वह राजधर्म की चरमसीमा है। इस यज्ञ से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं तथा अक्षय और अविनाशी फल की प्राप्ति होती है। अतः तुम दोनों विचारकर कहो कि इस लोक और परलोक के कल्याण के लिये क्या यह यज्ञ उत्तम रहेगा?"

बड़े भाई के ये वचन सुनकर धर्मात्मा भरत बोले, "महाराज! इस पृथ्वी पर सर्वोत्तम धर्म, यश और स्वयं यह पृथ्वी आप ही में प्रतिष्ठित है। आप ही इस सम्पूर्ण पृथ्वी और इस पर रहने वाले समस्त राजा भी आपको पितृतुल्य मानते हैं। अतः आप ऐसा यज्ञ किस प्रकार कर सकते हैं जिससे इस पृथ्वी के सब राजवंशों और वीरों का हमारे द्वारा संहार होने की आशंका हो?"

भरत के युक्‍तियुक्‍त वचन सुनकर श्रीराम बहुत प्रसन्न हुये और बोले, "भरत! तुम्हारा सत्यपरामर्श धर्मसंगत और पृथ्वी की रक्षा करने वाला है। तुम्हारा यह उत्तम कथन स्वीकार कर मैं राजसूय यज्ञ करने की इच्छा त्याग देता हूँ।"

तत्पश्‍चात लक्ष्मण बोले, "हे रघुनन्दन! सब पापों को नष्ट करने वाला तो अश्‍वमेघ यज्ञ भी है। यदि आप यज्ञ करना ही चाहते हैं तो इस यज्ञ को कीजिये। महात्मा इन्द्र के विषय में यह प्राचीन वृतान्त सुनने में आता है कि जब इन्द्र को ब्रह्महत्या लगी थी, तब वे अश्‍वमेघ यज्ञ करके ही पवित्र हुये थे।"

श्री राम द्वारा पूरी कथा पूछने पर लक्ष्मण बोले, "प्राचीनकाल में वृत्रासुर नामक असुर पृथ्वी पर पूर्ण धार्मिक निष्ठा से राज्य करता था। एक बार वह अपने ज्येष्ठ पुत्र मधुरेश्‍वर को राज्य भार सौंपकर कठोर तपस्या करने वन में चला गया। उसकी तपस्या से इन्द्र का भी आसन हिल गया। वह भगवान विष्णु के पास जाकर बोले कि प्रभो! तपस्या के बल से वृत्रासुर ने इतनी अधिक शक्‍ति संचित कर ली है कि मैं अब उस पर शासन नहीं कर सकता। यदि उसने तपस्या के फलस्वरूप कुछ शक्ति और बढ़ा ली तो हम सब देवताओं को सदा उसके आधीन रहना पड़ेगा। इसलिये प्रभो! आप कृपा करके सम्पूर्ण लोकों को उसके आधिपत्य से बचाइये। किसी भी प्रकार उसका वध कीजिये।

"देवराज इन्द्र की यह प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु बोले कि यह तो तुम जानते हो देवराज! मझे वृत्रासुर से स्नेह है। इसलिये मैं उसका वध नहीं कर सकता परन्तु तुम्हारी प्रार्थना भी मैं अस्वीकार नहीं कर सकता। इसलिये मैं अपने तेज को तीन भागों में इस प्रकार विभाजित कर दूँगा जिससे तुम स्वयं वृत्रासुर का वध कर सको। मेरे तेज का एक भाग तुम्हारे अन्दर प्रवेश करेगा, दूसरा तुम्हारे वज्र में और तीसरा पृथ्वी में ताकि वह वृत्रासुर के धराशायी होने पर उसका भार सहन कर सके। भगवान से यह वरदान पाकर इन्द्र देवताओं सहित उस वन में गये जहाँ वृत्र तपस्या कर रहा था। अवसर पाकर इन्द्र ने अपने शक्‍तिशाली वज्र वृत्रासुर के मस्तक पर दे मारा। इससे वृत्र का सिर कटकर अलग जा पड़ा। सिर कटते ही इन्द्र सोचने लगे, मैंने एक निरपराध व्यक्‍ति की हत्या करके भारी पाप किया है। यह सोचकर वे किसी अन्धकारमय स्थान में जाकर प्रायश्‍चित करने लगे। इन्द्र के लोप हो जाने पर देवताओं ने विष्णु भगवान से प्रार्थना की कि हे दीनबन्धु! वृत्रासुर मारा तो आपके तेज से गया है, परन्तु ब्रह्महत्या का पाप इन्द्र को भुगतना पड़ रहा है। इसलिये आप उनके उद्धार का कोई उपाय बताइये। यह सुनकर विषणु बोले कि यदि इन्द्र अश्‍वमेघ यज्ञ करके मुझ यज्ञपुरुष की आराधना करेंगे तो वे निष्पाप होकर देवेन्द्र पद को प्राप्त कर लेंगे। इन्द्र ने ऐसा ही किया और अश्‍वमेघ यज्ञ के प्रताप से उन्होंने ब्रह्महत्या से मुक्‍ति प्राप्त की।"

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राजा दण्ड की कथा - उत्तरकाण्ड (19)

>> Thursday, June 3, 2010

महर्षि अगस्त्य से श्‍वेत की कथा सुनकर श्रीरामचन्द्र ने पूछा, "मुनिराज! कृपया यह और बताइये कि जिस भयंकर वन में विदर्भराज श्‍वेत तपस्या करते थे, वह वन पशु-पक्षियों से रहित क्यों हो गया था?"

रघुनाथ जी की जिज्ञासा सुनकर महर्षि अगस्त्य ने बताया, "सतयुग की बात है, जब इस पृथ्वी पर मनु के पुत्र इक्ष्वाकु राज्य करते थे। राजा इक्ष्वाकु के सौ पुत्र उत्पन्न हुये। उन पुत्रों में सबसे छोटा मूर्ख और उद्‍दण्ड था। इक्ष्वाकु समझ गये कि इस मंदबुद्धि पर कभी न कभी दण्डपात अवश्य होगा। इसलिये वे उसे दण्ड के नाम से पुकारने लगे। जब वह बड़ा हुआ तो पिता ने उसे विन्ध्य और शैवल पर्वत के बीच का राज्य दे दिया। दण्ड ने उस सथान का नाम मधुमन्त रखा और शुक्राचार्य को अपना पुरोहित बनाया।

"एक दिन राजा दण्ड भ्रमण करता हुआ शुक्राचार्य के आश्रम की ओर जा निकला। वहाँ उसने शुक्राचार्य की अत्यन्त लावण्यमयी कन्या अरजा को देखा। वह कामपीड़ित होकर उसके साथ बलात्कार करने लगा। जब शुक्राचार्य ने अरजा की दुर्दशा देखी तो उन्होंने शाप दिया कि दण्ड सात दिन के अन्दर अपने पुत्र, सेना आदि सहित नष्ट हो जाय। इन्द्र ऐसी भयंकर धूल की वर्षा करेंगे जिससे उसका सम्पूर्ण राज्य ही नहीं, पशु-पक्षी तक नष्ट हो जायेंगे। फिर अपनी कन्या से उन्होंने कहा कि तू इसी आश्रम में इस सरोवर के निकट रहकर ईश्‍वर की आराधना और अपने पाप का प्रायश्‍चित कर। जो जीव इस अवधि में तेरे पास रहेंगे वे धूल की वर्षा से नष्ट नहीं होंगे। शुक्राचार्य के शाप के कारण दण्ड, उसका राज्य और पशु-पक्षी आदि सब नष्ट हो गये। तभी से यह भूभाग दण्डकारण्य कहलाता है।"

यह वृतान्त सुनकर श्रीराम विश्राम करने चले गये। दूसरे दिन प्रातःकाल वे वहाँ से विदा हो गये।

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राजा श्‍वेत की कथा - उत्तरकाण्ड (18)

>> Wednesday, June 2, 2010

इन्द्र से वर प्राप्त करके रघुनन्दन राम महर्षि अगस्त्य के आश्रम में पहुँचे। वे शम्बूक वध की कथा सुनकर बहुत प्रसन्न हुये और उन्होंने विश्‍वकर्मा द्वारा दिया हुआ एक दिव्य आभूषण श्रीराम को अर्पित किया। वह आभूषण सूर्य के समान दीप्तिमान, दिव्य, विचित्र तथा अद्‍भुत था। उसे देखकर श्री राम ने महर्षि अगस्त्य से पूछा, "मुनिवर! विश्‍वकर्मा का यह अद्‍भुत आभूषण आपके पास कहाँ से आया? जब यह आभूषण इतना विचित्र है तो इसकी कथा भी विचित्र ही होगी। यह जानने का मेरे मन में कौतूहल हो रहा है।"

श्रीराम की जिज्ञासा और कौतूहल को शान्त करने के लिये महर्षि ने कहा, "प्राचीन काल में एक बहत विस्तृत वन था जो चारों ओर सौ योजन तक फैला हुआ था, परन्तु उस वन में कोई प्राणी-पशु-पक्षी तक भी नहीं रहता था। उसमें एक मनोहर सरोवर भी था। उस स्थान को पूर्णतया एकान्त पाकर मैं वहाँ तपस्या करने के लिये चला गया था। सरोवर के चारों ओर चक्कर लगाने पर मुझे एक पुराना विचित्र आश्रम दिखाई दिया। उसमें एक भी तपस्वी नहीं था। मैंने रात्रि वहीं विश्राम किया। जब मैं प्रातःकाल स्नानादि के लिये सरोवर की ओर जाने लगा तो मुझे सरोवर के तट पर हृष्ट-पुष्ट निर्मल शव दिखाई दिया। मैं आश्‍चर्य से वहा बैठकर उस शव के विषय में विचार करने लगा। थोड़ी देर पश्‍चात् वहाँ एक दिव्य विमान उतरा जिस पर एक सुन्दर देवता विराजमान था। उसके चारों ओर सुन्दर वस्त्राभूषणों से अलंकृत अनेक अप्सराएँ बैठी थीं। उनमें से कुछ उन पर चँवर डुला रही थीं। फिर वह देवता सहसा विमान से उतरकर उस शव के पास आया और उसने मेरे देखते ही देखते उस शव को खाकर फिर सरोवर में जाकर हाथ-मुँह धोने लगा। जब वह पुनः विमान पर चढ़ने लगा तो मैंने उसे रोककर पूछा कि हे तेजस्वी पुरुष! कहाँ आपका यह देवोमय सौम्य रूप और कहाँ यह घृणित आहार? मैं इसका रहस्य जानना चाहता हूँ। मेरे विचार से आपको यह घृणित कार्य नहीं करना चाहिये था।

"मेरी बात सुकर वह दिव्य पुरुष बोला कि मेरे महायशस्वी पिता विदर्भ देश के पराक्रमी राजा थे। उनका नाम सुदेव था। उनकी दो पत्‍नियाँ थीं जनसे दो पुत्र उत्पन्न हुये। एक का नाम था श्‍वेत और दूसरे का सुरथ। मैं श्‍वेत हूँ। पिता की मृत्यु के बाद मैं राजा बना और धर्मानुकूल राज्य करने लगा। एक दिन मुझे अपनी मृत्यु की तिथि का पता चल गया और मैं सुरथ को राज्य देकर इसी वन में तपस्या करने के लिये चला आया। दीर्घकाल तक तपस्या करके मैं ब्रह्मलोक को प्राप्त हुआ, परन्तु अपनी भूख-प्यास पर विजय प्राप्त न कर सका। जब मैंने ब्रह्माजी से कहा तो वे बोले कि तुम मृत्युलोक में जाकर अपने ही शरीर का नित्य भोजन किया करो। यही तुम्हारा उपचार है क्योंकि तुमने किसी को कभी कोई दान नहीं दिया, केवल अपने ही शरीर का पोषण किया है। ब्रह्मलोक भी तुम्हें तुम्हारी तपस्या के कारण ही प्राप्त हुआ है। जब कभी महर्षि अगस्त्यत उस वन में पधारेंगे तभी तुम्हें भूख-प्यास से छुटकारा मिल जायेगा। अब आप मुझे मिल गये हैं, अतएव आप मेरा उद्धार करें और मेरा उद्धार करने के प्रतिदान स्वरूप यह दिव्य आभूषण ग्रहण करें। यह आभूषण दिव्य वस्त्र, स्वर्ण, धन आदि देने वाला है। इसके साथ मैं अपनी सम्पूर्ण कामनाएँ आपको समर्पित कर रहा हूँ। मेरे आभूषण लेते ही राजर्षि श्‍वेत पूर्णतः तृप्‍त होकर स्वर्ग को प्राप्त हुये और वह शव भी लुप्त हो गया।"

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ब्राह्मण बालक की मृत्यु - उत्तरकाण्ड (17)

>> Tuesday, June 1, 2010

एक दिन श्रीराम अपने दरबार में बैठे थे तभी एक बूढ़ा ब्राह्मण अपने मरे हुये पुत्र का शव लेकर राजद्वार पर आया और 'हा पुत्र!' 'हा पुत्र!' कहकर विलाप करते हुये कहने लगा, "मैंने पूर्वजन्म में कौन से पाप किये थे जिससे मुझे अपनी आँखों से अपने इकलौते पुत्र की मृत्यु देखनी पड़ी। केवल तेरह वर्ष दस महीने और बीस दिन की आयु में ही तू मुझे छोड़कर सिधार गया। मैंने इस जन्म में कोई पाप या मिथ्या-भाषण भी नहीं किया। फिर तेरी अकाल मृत्यु क्यों हुई? इस राज्य में ऐसी दुर्घटना पहले कभी नहीं हुई। निःसन्देह यह श्रीराम के ही किसी दुष्कर्म का फल है। उनके राज्य में ऐसी दुर्घटना घटी है। यदि श्रीराम ने तुझे जीवित नहीं किया तो हम स्त्री-पुरुष यहीं राजद्वार पर भूखे-प्यासे रहकर अपने प्राण त्याग देंगे। श्रीराम! फिर तुम इस ब्रह्महत्या का पाप लेकर सुखी रहना। राजा के दोष से जब प्रजा का विधिवत पालन नहीं होता तभी प्रजा को ऐसी विपत्तियों का सामना करना पड़ता है। इससे स्पष्ट है कि राजा से ही कहीं कोई अपराध हुआ है।"

इस प्रकार की बातें करता हुआ वह विलाप करने लगा।

जब श्रीरामचन्द्रजी इस विषय पर मनन कर रहे थे तभी वसिष्ठजी आठ ऋषि-मुनियों के साथ दरबार में पधारे। उनमें नारद जी भी थे। श्री राम ने जब यह समस्या उनके सम्मुख रखी तो नारद जी बोले, "राजन्! जिस कारण से इस बालक की अकाल मृत्यु हुई वह मैं आपको बताता हूँ। सतयुग में केवल ब्राह्मण ही तपस्या किया करते थे। फिर त्रेता के आरम्भ में क्षत्रियों को भी तपस्या का अधिकार मिल गया। अन्य वर्णों का तपस्या में रत होना अधर्म है। हे राजन्! निश्‍चय ही आपके राज्य में कोई शूद्र वर्ण का मनुष्य तपस्या कर रहा है, उसी से इस बालक की मृत्यु हुई है। इसलिये आप खोज कराइये कि आपके राज्य में कोई व्यक्‍ति कर्तव्यों की सीमा का उल्लंघन तो नहीं कर रहा। इस बीच ब्राह्मण के इस बालक को सुरक्षित रखने की व्यवस्था कराइये।"

नारदजी की बात सुनकर उन्होंने ऐसा ही किया। एक ओर सेवकों को इस बात का पता लगाने के लिये भेजा कि कोई अवांछित व्यक्‍ति ऐसा कार्य तो नहीं कर रहा जो उसे नहीं करना चाहिये। दूसरी ओर विप्र पुत्र के शरीर की सुरक्षा का प्रबन्ध कराया। वे स्वयं भी पुष्पक विमान में बैठकर ऐसे व्यक्‍ति की खोज में निकल पड़े। पुष्पक उन्हें दक्षिण दिशा में स्थित शैवाल पर्वत पर बने एक सरोवर पर ले गया जहाँ एक तपस्वी नीचे की ओर मुख करके उल्टा लटका हुआ भयंकर तपस्या कर रहा था। उसकी यह विकट तपस्या देख कर उन्होंने पूछा, "हे तपस्वी! तुम कौन हो? किस वर्ण के हो और यह भयंकर तपस्या क्यों कर रहे हो?"

यह सुनकर वह तपस्वी बोले, "महात्मन्! मैं शूद्र योनि से उत्पन्न हूँ और सशरीर स्वर्ग जाने के लिये यह उग्र तपस्या कर रहा हूँ। मेरा नाम शम्बूक है।"

शम्बूक की बात सुकर रामचन्द्र ने म्यान से तलवार निकालकर उसका सिर काट डाला। जब इन्द्र आदि देवताओं ने महाँ आकर उनकी प्रशंसा की तो श्रीराम बोले, "यदि आप मेरे कार्य को उचित समझते हैं तो उस ब्राह्मण के मृतक पुत्र को जीवित कर दीजिये।"

राम के अनुरोध को स्वीकार कर इन्द्र ने विप्र पुत्र को तत्काल जीवित कर दिया।

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लवणासुर वध - उत्तरकाण्ड (16)

>> Monday, May 31, 2010

अगले दिन प्रातःकाल होने पर जब लवणासुर अपने पुर से बाहर निकला, तब ही शत्रुघ्न हाथ में धनुष बाण ले मधुपुरी को घेर कर खड़े हो गये। दोपहर होने पर वह क्रूर राक्षस हजारों मरे हुये जीवों को लेकर वहाँ आया तो शत्रुघ्न ने उसे द्वन्द्व युद्ध के लिये ललकारा। अभिमानी लवण तत्काल उनसे युद्ध करने के लिये तैयार हो गया और बोला, "तेरे भाई ने रावण को मारा था जो मेरी मौसी शूर्पणखा का भाई था। आज मैं उसका बदला तुझसस लूँगा। तुझे पता नहीं, अब तक मैं बड़े-बड़े शूरवीरों को धराशायी कर चुका हूँ तेरी भला क्या गिनती है?"

यह सुनकर शत्रुघ्न बोले, "नराधम! जब तूने उन वीरों को धराशायी किया होगा तब शत्रुघ्न का जन्म नहीं हुआ था। आज मैं तुझे अपने तीक्ष्ण बाणों से सीधा यमलोक का रास्ता दिखाउँगा।"

यह सुनते ही लवण ने क्रोध कर एक वृक्ष उखाड़ कर शत्रुघ्न को मारा, परन्तु उन्होंने मार्ग में ही उसके सैकड़ों टुकड़े कर दिये। फिर उन्होंने उस पर बाणों की झड़ी लगा दी, किन्तु लवण इस आक्रमण से तनिक भी विचलित नहीं हुआ। उल्टे उसने शीघ्रता से एक भारी वृक्ष उखाड़कर उनके सिर पर मारा जिससे उन्हें क्षणिक मूर्छा आ गई। मूर्छित शत्रुघ्न को मरा हुआ समझ वह अपना आहार जुटाने और सैनिकों को खाने लग गया। अपना शूल लेने नहीं गया।

मूर्छा भंग होते ही शत्रुघ्न ने रघुनाथजी द्वारा दिया हुआ अमोघ बाण लेकर उसके वक्षस्थल पर छोड़ दिया वह बाण लवण का हृदय चीरता हुआ रसातल में घुस गया और फिर शत्रुघ्न के पास लौट आया। उधर लवणासुर ने भयंकर चीत्कार करके अपने प्राण त्याग दिये। शत्रुघ्न ने उस नगर को फिर से बसाकर उसका नाम मधुपुरी रखा। थोड़े ही दिनों में नगर सब प्रकार से सुख सम्पन्न हो गया। इस नगर को नवीन रूप पाने में बारह वर्ष लग गये। फिर एक सप्ताह के लिये शत्रुघ्न अयोध्या चले गये।

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मान्धाता की कथा - उत्तरकाण्ड (15)

>> Saturday, May 29, 2010

रात्रि होने पर शत्रुघ्न ने महर्षि च्यवन से लवणासुर के विषय में अन्य जानकारी प्राप्‍त की तथा पूछा कि उस शूल से कौन-कौन शूरवीर मारे गये हैं। च्यवन ऋषि बोले, "हे रघुनन्दन! शिवजी के इस त्रिशूल से अब तक असंख्य योद्धा मारे जा चुके हैं। तुम्हारे कुल में तुम्हारे पूर्वज राजा मान्धाता भी इसी के द्वारा मारे गये थे।"

शत्रुघ्न द्वारा पूरा विवरण पूछे जाने पर महर्षि ने बताया, "हे राजन्! पूर्वकाल में महाराजा युवनाश्‍व के पुत्र महाबली मान्धाता ने स्वर्ग विजय की इच्छा से देवराज इन्द्र को युदध के लिये ललकारा। तब इन्द्र ने उनसे से कहा कि राजा! अभी तो तुम समस्त पृथ्वी को ही वश में नहीं कर सके हो, फिर देवलोक पर आक्रमण की इच्छा क्यों करते हो? तुम पहले मधुवन निवासी लवणासुर पर विजय प्राप्त करो। यह सुनकर राजा पृथ्वी पर लौट आये और लवणासुर से युद्ध करने के लिये उसके पास अपना दूत भेजा। परन्तु उस नरभक्षी लवण ने उस दूत का ही भक्षण कर लिया। जब राजा को इसका पता चला तो उन्होंने क्रोधित होकर उस पर बाणों की प्रचण्ड वर्षा प्रारम्भ कर दी।

उन बाणों की असह्य पीड़ा से पीड़ित हो उस राक्षस ने शंकर से प्राप्त उस शूल को उठाकर राजा का वध कर डाला। इस प्रकार उस शूल में बड़ा बल है। हे रघुकुलश्रेष्ठ! मान्धाता को इस शूल के विषय में कोई जानकारी नहीं थी अतः वे धोखे में मारे गये। परन्तु तुम निःसन्देह ही उस राक्षस को मारने में सफल होगे।

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पूर्व राजाओं के यज्ञ-स्थल एवं लवकुश का जन्म - उत्तरकाण्ड (14)

>> Wednesday, May 26, 2010

अयोध्या से प्रस्थान करने के तीसरे दिन शत्रुघ्न ने महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में विश्राम किया। रात्रि में उन्होंने मुनि से पूछा, "हे महर्षि! आपके आश्रम के निकट पूर्व में यह किसका यज्ञ-स्थल दिखाइ पड़ रहा है?"

महर्षि बोले, हे सौमित्र! यह यज्ञ-स्थल तुम्हारे कुल के महान राजाओं ने बनवाया था। मैं उनके विषय में बताता हूँ। तुम्हारे कुल में सौदास नाम बड़े धार्मिक राजा हुए हैं। एक दिन आखेट करते हुये उन्होंने वन में दो भयंकर दुर्धुर्ष राक्षसों को देखा। राजा ने बाण चलाकर उनमें से एक को मार गिराया। यह देखकर दूसरा राक्षस यह कहता हुआ अद‍ृश्य हो गया कि हे पापी! तूने मेरे इस मित्र को निरपराध मारा है, अतः मैं इसका प्रतिशोध अवश्य लूँगा।

कुछ समय पश्‍चात् सौदास ने अपने पुत्र वीर्यसह को राज्य देकर और वसिष्ठ जी को पुरोहित बनाकर इस स्थान पर अश्‍वमेघ यज्ञ किया। उस समय वही राक्षस अपने प्रतिशोध लेने के लिये वहाँ आया और वसिष्ठ जी का रूप बनाकर राजा से बोले कि आज मुझे माँसयुक्‍त भोजन कराओ, इसमें सोच-विचार की आवश्यकता नहीं है। राजा ने अपने रसोइये को ऐसा ही आदेश दिया। इस आदेश को सुनकर वह आश्‍चर्य में पड़ गया। तभी वह राक्षस रसोइये के वेश में वहाँ उपस्थित हुआ और भोजन में मनुष्य का माँस मिलाकर राजा को दिया। राजा ने अपनी पत्‍नी सहित वह भोजन वसिष्ठ जी को परोसा। जब वसिष्ठ जी को ज्ञात हुआ कि भोजन में मनुष्य का माँस है तो उन्होंने क्रोधित होकर राजा को शाप दिया कि राजन्! जैसा भोजन तूने मुझे प्रस्तुत किया है, वैसा ही भोजन तुझे प्राप्त होगा। तब तो राजा वीर्यसह ने भी क्रोधित हो हाथ में जल लेकर वसिष्ठ जी को शाप देना चाहा। परन्तु रानी के समझाने पर वह जल अपने पैरों पर डाल दिया। इससे उनके दोनों पैर काले हो गये। तभी से उनका नाम कल्माषपाद पड़ गया। तत्पश्‍चात् राजा और रानी ने महर्षि वसिष्ठ के पैर पकड़ कर क्षमा माँगी और पूरा वृतान्त उन्हें कह सुनाया। तब वसिष्ठ जी ने कहा कि राजन्! बारह वर्ष पश्‍चात् आप इस शाप से मुक्‍त हो जाओगे और तुम्हें इसका स्मरण भी नहीं रहेगा। हे शत्रुघ्न! इस प्रकार राजा कल्माषपाद उस शाप को भोगकर पुनः राज्य प्राप्त कर धैर्यपूर्वक प्रजा का पालन करने लगे। उन्हीं राजा सौदास और राजा कल्माषपाद का यह सुन्दर यज्ञ-स्थल है।"

यह कथा सुनकर शत्रुघ्न अपनी पर्णशाला में विश्राम करने चले गये।

जिस दिन शत्रुघ्न वाल्मीकि के आश्रम में पहुँचे उसी रात को सीताजी ने एक साथ दो पुत्रों को जन्म दिया। तपस्विनी बालाओं से उनके जन्म का समाचार सुनकर महर्षि ने एक कुशाओं का मुट्ठा और उनके लव लेकर मन्त्रोच्चार द्वारा उनकी भावी बाधाओं से रक्षा करने की व्यवस्था की। फिर एक का कुश और दूसरे का लव से मार्जन कराया। इस प्रकार बड़े बालक का नाम कुश और दूसरे का लव रखा गया। शत्रुघ्न को भी यह समाचार पाकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई।

अगले दिन प्रातःकाल सब कृत्यों से निवृत हो शत्रुघ्न मधुपुरी की ओर चल दिये। मार्ग में सात रात्रियाँ व्यतीत कर वे महर्षि च्यवन के आश्रम में पहुँचे।

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च्यवन ऋषि का आगमन - उत्तरकाण्ड (13)

>> Tuesday, May 25, 2010

एक दिन जब श्रीराम अपने दरबार में बैठे थे तो यमुना तट निवासी कुछ ऋषि -महर्षि च्यवन ऋषि जी के साथ दरबार में पधारे। कुशल क्षेम के पश्‍चात् उन्होंने बताया, "महाराज! इस समय हम बड़े दुःखी हैं। लवण नामक एक भयंकर राक्षस ने यमुना तट पर भयंकर उत्पात मचा रखा है। उसके अत्याचारों से त्राण पाने के लिये हम बड़े-बड़े राजाओं के पास गये परन्तु कोई भी हमारी रक्षा न कर सका। आपकी यशोगाथा सुनकर अब हम आपकी शरण आये हैं। हमें आशा है आप निश्‍चय ही हमारा भय दूर करेंगे।"

ऋषियों के यह वचन सुनकर सत्यप्रतिज्ञ श्री राम बोले, "हे महर्षियों! यह समस्त राज्य और मेरे प्राण भी आपके लिये ही हैं। मैं आपको वचन देता हूँ कि मैं उस दुष्ट के वध का उपाय शीघ्र ही करूँगा। आप मुझे उसके विषय में विस्तार से बतायें।"

च्यवन ऋषि बोले, "हे राजन्! सतयुग में लीला नामक दैत्य का पुत्र मधु बड़ा शक्‍तिशाली और बुद्धिमान राक्षस था। उसने भगवान शंकर की तपस्या करके उनसे अपने तथा अपने वंश के लिये एक ऐसा शूल प्राप्त किये था जो शत्रु का विनाश करके वापस उसके पास आ जाता था। उन्होंने यह भी वर दिया कि जिसके हाथ में जब तक यह शूल रहेगा, तब तक वह अवध्य रहेगा। उसी मधु का पुत्र लवण है जो अत्यन्त दुष्टात्मा है और उस शूल के बल पर निरन्तर हमें कष्ट देता है। वह प्रायः किसी न किसी ऋषि, मुनि, तपस्वी को अपने आहार बनाता है। वन के प्राणियों, मनुष्यादि किसी को भी वह नहीं छोड़ता।"

यह सुनकर राम ने सब भाइयों को बुलाकर पूछा, "इस राक्षस को मारने का भार कौन अपने ऊपर लेना चाहता है?"

यह सुनकर शत्रुघ्न बोले, "प्रभो! लक्ष्मण ने आपके साथ रहते हुये बहुत से राक्षसों का संहार किया है। भैया भरत ने भी आपकी अनुपस्थिति में नन्दीग्राम में रहते हुये अनेक दैत्यों को मौत के घाट उतारा है। इसलिये लवणासुर के वध का कार्य मुझे सौंपने की कृपा करें।"

श्री राम बोले, "ठीक है, तुम ही लवणासुर का संहार करो और उसे मारके मधुपुर में अपना राज्य सथापित करो। मैं तुम्हें वहाँ का राजसिंहासन सौंपता हूँ।"

फिर उन्होंने शत्रुघ्न को एक अद्‍भुत अमोघ बाण देकर कहा, "इस अद्‍भुत बाण से ही मधु और कैटभ नामक राक्षसों का विष्णु ने वध किया था। इससे लवणासुर अवश्य मारा जायेगा। एक बात का ध्यान रखना कि वह अपने शूल को महल के अन्दर एक प्रकोष्ठ में रखकर नित्य उसका पूजन करता है। जब वह तुम्हें अपने महल के बाहर दिखाई दे तभी तुम उसे युद्ध के लिये ललकारना। अभिमान के कारण वह तुमसे युद्ध करने लगेगा और शूल के लिये महल के अन्दर जाना भूल जायेगा। इस प्रकार वह रणभूमि में तुम्हारे हाथ से मारा जायेगा।"

बड़े भाई की आज्ञा पाकर शत्रुघ्न ने विशाल सेना लेकर श्रीराम द्वारा दिय गये निर्देशों के अनुसार लवणासुर को मारने की योजना बराई। उन्होंने सेना को ऋषियों के साथ आगे भेज दिया। एक माह पश्‍चात् उन्होंने अपनी माताओं, गुरुओं और भाइयों की परिक्रमा एवं प्रणाम कर अकेले ही प्रस्थान किया।

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कुत्ते का न्याय - उत्तरकाण्ड (12)

>> Monday, May 24, 2010

श्रीराम के शासन में न तो किसी को शारीरिक रोग होता था, न किसी की अकाल मृत्यु होती थी, न कोई स्त्री विधवा होती थे और न माता पिताओं को सन्तान का शोक सहना पड़ता था। सारा राज्य सब प्रकार से सुख-सम्पन्न था। इसलिये कोई व्यक्‍ति किसी प्रकार का विवाद लेकर राजदरबार में उपस्थित भी नहीं होता था। किन्तु एक दिन एक कुत्ता राजद्वार पर आकर बार-बार भौंकने लगा। उसे अभियोगी समझ राजदरबार में उपस्थित किया गया। पूछने पर कुत्ते ने बताया, "प्रभो! आपके राज्य में सर्वार्थसिद्ध नामक एक भिक्षुक है। उसने आज अकारण मुझ पर प्रहार करके मेरा मस्तक फाड़ दिया है। इसलिये मैं इसका न्याय चाहता हूँ।"

कुत्ते की बात सुनकर उस भिक्षुक ब्राह्मण को बुलवाया गया। ब्राह्मण के आने पर राजा रामचन्द्र ने पूछा, "विप्रवर! क्या आपने इस कुत्ते के सिर पर घातक प्रहार किया था? यदि किया था तो इसका क्या कारण है? वैसे ब्राह्मण को अकारण क्रोध आना तो नहीं चाहिये।"

महाराज की बात सुनकर सर्वार्थसिद्ध बोले, "प्रभो! यह सही है कि मैंने इस कुत्ते को डंडे से मारा था। उस समय मेरा मन क्रोध से भर गया था। बात यह थी कल मेरे भिक्षाटन का समय बीत चुका था, तो भी भूख के कारण मैं भिक्षा के लिये द्वार-द्वार पर भटक रहा था। उस समय यह कुत्ता बीच में आ खड़ा हुआ। मैं भूखा तो था ही, अतएव मुझे क्रोध आ गया और मैंने इसके सिर पर डंडा मार दिया। मैँ अपराधी हूँ, मुझे दण्ड दीजिये। आपसे दण्ड पाकर मुझे नरक यातना नहीं भोगनी पड़ेगी।"

जब राजा राम ने सभसदों से उसे दण्ड देने के विषय में परामर्श किया तो उन्होंने कहा, "राजन्! ब्राह्मण दण्ड द्वारा अवध्य है। इसे शारीरिक दण्ड नहीं दिया जा सकता और यह इतना निर्धन है कि आर्थिक दण्ड का भार भी नहीं उठा सकेगा।"

यह सुनकर कुत्ते ने कहा, "महाराज! यदि आप आज्ञा दें तो मैं इसके दण्ड के बारे में एक सुझाव दूँ। मेरे विचार से इसे महन्त बना दिया जाय। यदि आप इसे कालंजर के किसी मठ का मठाधीश बना दें तो यह दण्ड इसके लिये सबसे उचित होगा।"

कुत्ते का सुझाव मानकर श्रीराम ने उसे मठाधीश बना दिया और वह हाथी पर बैठकर वहाँ से प्रसन्नतापूर्वक चला गया।

उसके जाने के पश्‍चात् एक मन्त्री ने कहा, "प्रभो! यह तो उसके लिये उपहार हुआ, दण्ड नहीं।"

मन्त्री की बात सुनकर श्रीराम ने कहा, "मन्त्रिवर! यह उपहार नहीं, दण्ड ही है। इसका रहस्य तुम नहीं समझ सके हो।"

फिर कुत्ते से बोले, "श्‍वानराज! तुम इन्हें इस दण्ड का रहस्य बताओ।"

राघव की बात सुनकर कुत्ता बोला, "रघुनन्दन! पिछले जन्म में मैं कालंजर के एक मठ का अधिपति था। वहाँ मैं सदैव शुभ कर्म किया करता था। फिर भी मुझे कुत्ते की योनि मिली। यह तो अत्यन्त क्रोधी है। इसका अन्त मुझसे भी अधिक खराब होगा। मठाधीश ब्राह्मणों और देवताओं के निमित्त दिये गये द्रव्य का उपभोग करता है, इसलिये वह पाप का भागी बनता है।"

यह रहस्य बताकर कुत्ता वहाँ से चला गया।

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राजा ययाति की कथा - उत्तरकाण्ड (11)

>> Sunday, May 23, 2010

इस आश्‍चर्यजनक कथा को सुनकर सुमित्रानन्दन बोले, "हे प्रभो! ऐसे ही शाप की कोई और कथा हो तो सुनाइये।"

लक्ष्मण के जिज्ञासा देखकर कौशल्यानन्दन बोले, "नहुष के पुत्र राजा ययाति के दो पत्‍नियाँ थीं - एक शर्मिष्ठा और दूसरी देवयानी। शर्मिष्ठा दैत्यकुल के वृषपर्वा की कन्या थी और देवयानी शुक्राचार्य की। राजा को शर्मिष्ठा से विशेष स्नेह था। शर्मिष्ठा ने पुरु को और देवयानी ने यदु को जन्म दिया। दोनों ही बालक बड़े तेजस्वी थे। देवयानी को उचित सम्मान न पाते देख यदु ने उससे कहा कि माता! इस असम्मानजनक जीवन से क्या यह अधिक उचित न होगा कि हम अग्नि में प्रवेश करके यह जीवन समाप्त कर दें? यदि तुम मेरी बात नहीं मानोगी तो भी मैं यह जीवन धारण नहीं करूँगा।

पुत्र की यह बात सुनकर देवयानी ने सारी बातें अपने पिता भृगुनन्दन शुक्राचार्य को बता दी और स्वयं भी जल मरने को तैयार हो गई। उसने कहा कि ययाति मेरा ही नहीं आपका भी अनादर करते हैं। इससे क्रोधित होकर शुक्राचार्य ने ययाति को लक्ष्य करके शाप दिया कि दुरात्मने! तुम्हारी अवस्था जराजीर्ण वृद्ध जैसी हो जाये। तुम बिल्कुल शिथिल हो जाओ। इस प्रकार शाप देकर वे मौन हो गये।

"इस शाप के फलस्वरूप राजा ययाति को ऐसी वृद्धावस्था ने आ घेरा जो दूसरे की युवावस्था से बदली जा सकती थी। ययाति ने यदु से अनुरोध किया कि तुम मुझे अपना यौवन देकर मेरी वृद्धावस्था ले लो। कुछ समय पश्‍चात् मैं तुम्हारा यौवन तुम्हें लौटा दूँगा। यह सुनकर यदु ने कहा यह सौदा आप अपने लाडले पुरु से करें। जब उन्होंने पुरु से यह बात कही तो पुरु ने राजा का अनुरोध सुनकर तत्काल वृद्धावस्था के बदले में अपना यौवन दे दिया। सहस्त्रों वर्षों तक यज्ञ आदि का अनुष्ठान करके उन्होंने पुरु को फिर उनका यौवन लौटा दिया और यदु को शाप दिया कि तुमने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया है, इसलिये तुम्हारी सन्तान राजा नहीं होगी। हे सौमित्र! यह सब प्राचीन आख्यान मैंने तुम्हें सुना दिया। अब हमें उसी प्रकार करना चाहिये जिससे हमें किसी प्रकार का कोई दोष न लगे।"

ये कथाएँ सुनाते-सुनाते रात्रि व्यतीत हो चली और ब्राह्म-मुहूर्त का समय हो गया।

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राजा निमि की कथा - उत्तरकाण्ड (10)

>> Friday, May 21, 2010

श्रीरामचन्द्रजी बोले, "हे लक्ष्मण! अब मैं तुम्हें शाप से सम्बंधित एक अन्य कथा सुनाता हूँ। हमारे ही पूर्वजों में निमि नामक एक प्रतापी राजा थे। वे महात्मा इक्ष्वाकु के बारहवें पुत्र थे। उन्होंने वैजयन्त नामक एक नगर बसाया था। इस नगर को बसाकर उन्होंने एक भारी यज्ञ का अनुष्ठान किया। यज्ञ सम्पन्न करने के लिये महर्षि वसिष्ठ, अत्रि, अंगिर तथा भृगु को आमन्त्रित किया। किन्तु वसिष्ठ का एक यज्ञ के लिये देवराज इन्द्र ने पहले ही वरण कर लिया था, इसलिये वे निमि से प्रतीक्षा करने के लिये कहकर इन्द्र का यज्ञ कराने चले गये।

"वसिष्ठ के जाने पर महर्षि गौतम ने यज्ञ को पूरा कराया। वसिष्ठ ने लौटकर जब देखा कि गौतम यज्ञ को पूरा कर रहे हैं तो उन्होंने क्रद्ध होकर निमि से मिलने की इच्छा प्रकट की। जब दो घड़ी प्रतीक्षा करने पर भी निमि से भेंट न हो सकी तो उन्होंने शाप दिया कि राजा निमे! तुमने मेरी अवहेलना करके दूसरे पुरोहित को वरण किया है, इसलिये तुम्हारा शरीर अचेतन होकर गिर जायेगा। जब राजा निमि को इस शाप की बात मालूम हुई तो उन्होंने भी वसिष्ठ जी को शाप दिया कि आपने मुझे अकारण ही शअप दिया है अतएव आपका शरीर भी अचेतन होकर गिर जायेगा। इस प्रकार शापों के कारण दोनों ही विदेह हो गये।"

यह सुनकर लक्ष्मण बोले, "रघुकुलभूषण! फिर इन दोनों को नया शरीर कैसे मिला?"

लक्ष्मण का प्रश्‍न सुनकर राघव बोले, "पहले तो वे दोनों वायुरूप हो गये। वसिष्ठ ने ब्रह्माजी से देह दिलाने की प्रार्थना की तो उन्होंने कहा कि तुम मित्र और वरुण के छोड़े हुये वीर्य में प्रविष्ट हो जाओ। इससे तुम अयोनिज रूप से उत्पन्न होकर मेरे पुत्र बन जाओगे। इस प्रकार वसिष्ठ फिर से शरीर धारण करके प्रजापति बने। अब राजा निमि का वृतान्त सुनो। राजा निमि का शरीर नष्ट हो जाने पर ऋषियों ने स्वयं ही यज्ञ को पूरा किया और राजा को तेल के कड़ाह आदि में सुरक्षित रखा। यज्ञ कार्यों से निवृत होकर महर्षि भृगु ने राजा निमि की आत्मा से पूछा कि तुम्हारे जीव चैतन्य को कहाँ स्थापित किया जाय? इस पर निमि ने कहा कि मैं समस्त प्राणियों के नेत्रों में निवास करना चाहता हूँ। राजा की यह अभिलाषा पूर्ण हुई। तब से निमि का निवास वायुरूप होकर समस्त प्राणियों के नेत्रों में हो गया। उन्हीं राजा के पुत्र मिथिलापति जनक हुये और विदेह कहलाये।

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राजा नृग की कथा - उत्तरकाण्ड (9)

>> Monday, May 17, 2010

एक दिन लक्ष्मण ने श्रीराम से कहा, "महाराज! आप राजकाज में इतने व्यस्त रहते हैं कि अपने स्वास्थ्य का भी ध्यान नहीं रखते।"

यह सुनकर रामचन्द्रजी बोले, "लक्ष्मण! राजा का कर्तव्य होता है राजकाज में पूर्णतया लीन रहना। तनिक सी असावधानी हो जाने पर उसे राजा नृग की भाँति भयंकर यातना भोगनी पड़ती है।"

लक्ष्मण के जिज्ञासा करने पर उन्होंने राजा नृग की कथा सुनाते हुये कहा, "पहले इस पृथ्वी पर महायशस्वी राजा नृग राज्य करते थे। वे बड़े धर्मात्मा और सत्यवादी थे। एक बार उन्होंने तीर्थराज पुष्कर में जाकर स्वर्ण विभूषित बछड़ों युक्‍त एक करोड़ गौओं का दान किया। उसी समय उन गौओं के साथ एक दरिद्र ब्राह्मण की गाय बछड़े सहित आकर मिल गई और राजा नृग ने संकल्पपूर्वक उसे किसी ब्राह्मण को दान कर दिया। उधर वह दरिद्र ब्राह्मण वर्षों तक स्थान-स्थान पर अपनी गाय को ढूँढता रहा। अन्त में उसने कनखल में एक ब्राह्मण के यहाँ अपने गाय को पहचान लिया। गाय का नाम 'शवला' था। जब उसने गाय को नाम लेकर पुकारा तो वह गाय उस दरिद्र ब्राह्मण के पीछे हो ली। इस पर दोनों ब्राह्मणों में विवाद हो गया। एक कहता था, गाय मेरी है और दूसरा कहता कि मुझे यह राजा ने दान में दी है। दोनों झगड़ते हुये राजा नृग के यहाँ पहुँचे। राजकाज में व्यस्त रहने के कारण जब कई दिन तक नृग ने उनसे भेंट नहीं की तो उन्होंने शाप दे दिया कि विवाद का निर्णय कराने की इच्छा से आये प्रार्थियों को तुमने कई दिन तक दर्शन नहीं दिये, इसलिये तुम प्राणियों से छिपकर रहने वाले गिरगिट हो जाओगे और सहस्त्रों वर्ष तक गड्ढे में पड़े रहोगे। भगवान विष्णु जब कृष्ण के रूप में अवतार लेंगे तब वे ही तुम्हारा उद्धार करेंगे। इस प्रकार राजा नृग आज भी अपनी उस भूल का दण्ड भुगत रहे हैं। अतएव जब भी कोई कार्यार्थी द्वार पर आये, उसे सदा मेरे सामने तत्काल उपस्थित किया करो।"

राम का आदेश सुनकर लक्ष्मण बोले, "राघव! ब्राह्मणों का शाप सुनकर राजा नृग ने क्या किया?"

इस प्रश्न के उत्तर में श्रीराम ने बताया, "जब दोनों ब्राह्मण शाप देकर चले गये तो राजा ने अपने मन्त्री को भेजकर उन्हें वापिस बुलाया और उनसे क्षमायाचना की। फिर एक सुन्दर सा गड्ढा बनवाकर और अपने राजकुमार वसु को अपना राज्य सौंपकर उस गड्ढे में निवास करने लगे। ब्राह्मण के शाप का भारी प्रभाव होता है।"

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लक्ष्मण की वापसी - उत्तरकाण्ड (8)

>> Saturday, May 15, 2010

रथ में मूर्छा भंग होने पर लक्ष्मण फिर विलाप करने लगे। सुमन्त ने उन्हें धैर्य बँधाते हुये उनसे कहा, "वीरवर! आपको सीता के विषय में संताप नहीं करना चाहिये। यह बात तो दुर्वासा मुनि ने स्वर्गीय राजा दशरथ जी को पहले ही बता दी थी कि श्रीराम सदैव दुःख उठायेंगे। उन्हें प्रियजनों का वियोग उठाना पड़ेगा। मुनि के कथनानुसार दीर्घकाल व्यतीत होने पर वे आपको तथा भरत और शत्रुघ्न को भी त्याग देंगे। यह बात उन्होंने मेरे सामने कही थी, परन्तु स्वर्गीय महाराज ने मुझे आदेश दिया था कि यह बात मैं किसी से न कहूँ। अब उचित अवसर जानकर आपसे कह रहा हूँ। आपसे अनुरोध है कि आप यह बात भरत और शत्रुघ्न के सम्मुख कदापि न कहें।"

सुमन्त की बात सुनकर जब लक्ष्मण ने किसी से न कहने का आश्‍वासन देकर पूरी बात बताने का आग्रह किया तो सुमन्त ने कहा, "एक समय की बात है, दुर्वासा मुनि महर्षि वसिष्ठ के आश्रम में रहकर चातुर्मास बिता रहे थे। उसी समय महाराज दशरथ वसिष्ठ जी के दर्शनों के लिये पहुँचे। बातों-बातों में महाराज ने दुर्वासा मुनि से पूछा कि भगवन्! मेरा वंश कितने समय तक चलेगा? मेरे सब पुत्रों की आयु कितनी होगी? कृपा करके मेरे वंश की स्थिति मुझे बताइये। इस पर उन्होंने महाराज को कथा सुनाई कि देवासुर संग्राम में पीड़ित हुये दैत्यों ने महर्षि भृगु की पत्‍नी की शरण ली थी। भृगु की पत्‍नी द्वारा दैत्यों को शरण दिये जाने पर कुपित होकर भगवान विष्णु ने अपने चक्र से उसका सिर काट डाला। अपनी पत्‍नी के मरने पर भृगु ने क्रुद्ध होकर विष्णु को शाप दिया कि आपने मेरी पत्‍नी की हत्या की है, इसलिये आपको मनुष्य के रूप में पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ेगा और वहाँ दीर्घकाल तक पत्‍नी का वियोग सहना पड़ेगा। शाप की बात बताकर महर्षि दुर्वासा ने रघुवंश के भविष्य सम्बंधी बहुत सी बातें बताईं। उसमें आप लोगों को त्यागने की बात भी बताई गई थी। उन्होंने यह भी कहा था कि रघुनाथजी सीता के दो पुत्रों का अभिषेक अयोध्या के बाहर करेंगे, अयोध्या में नहीं। इसलिये विधाता का विधान जानकर आपको शोक नहीं करना चाहिये।" ये बातें सुनकर लक्ष्मण का संताप कुछ कम हुआ।

केशिनी के तट पर रात्रि बिताकर दूसरे दिन दोपहर को लक्ष्मण अयोध्या पहुँचे। उन्होंने अत्यन्त दुःखी मन से श्रीराम के पास पहुँचकर सीता के परित्याग का सम्पूर्ण वृतान्त जा सुनाया। राम ने संयमपूर्वक सारी बातें सुनीं और अपने मन पर नियन्त्रण रखते हुये राजकाज में मन लगाया।

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सीता का निर्वासन - उत्तरकाण्ड (7)

>> Saturday, May 8, 2010

प्रातःकाल बड़े उदास मन से लक्ष्मण ने सुमन्त से सुन्दर घोड़ों से युक्‍त रथ लाने के लिये कहा। उसमें सीता जी के लिये एक सुरम्य आसन लगाने का भी आदेश दिया। सुमन्त के पूछने पर बताया कि उन्हें जानकी के साथ महर्षियों के आश्रम पर जाना है। रथ आ जाने पर लक्ष्मण सीता जी के पास जाकर बोले, "देवि! आपने महाराज से मुनियों के आश्रमों में जाने की अभिलाषा प्रकट की थी। अतएव मैं महाराज की आज्ञा से तैयार होकर आ गया हूँ ताकि आपको गंगा तट पर ऋषियों के पवित्र आश्रमों तक पहुँचा सकूँ।

लक्ष्मण के वचन सुनकर सीता जी प्रन्नतापूर्व उनके साथ चलने को तैयार हो गईं। मुनिपत्‍नियों को देने के लिये उन्होंने अपने साथ बहुत से बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण और नाना प्रकार के रत्‍न रख लिये। उन दोनों को रथ पर सवार कराकर सुमन्त द्रुतगति से रथ को वन की ओर ले चला। मार्ग में सीता लक्ष्मण से कहने लगी, "वीरवर! मुझे बहत से अपशकुन दिखाई दे रहे हैं। मेरी दायीं आँख फड़क रही है, शरीर काँप रहा है, हृदय अस्वस्थ सा प्रतीत हो रहा है। तुम्हारे भाई कुशल से तो हैं? मेरी सब सासुएँ सानन्द तो हैं?"

सीता की अधीर वाणी सुनकर लक्ष्मण ने अपने मन की उदासी दबाकर उन्हें धैर्य बँधाया। गोमती के तट पर पहुँचकर एक आश्रम में उन्होंने रात व्यतीत की। दूसरे दिन प्रातःकाल वे आगे चले और दोपहर तक गंगा के तट पर जा पहुँचे। गंगा की जलधारा को देखते ही लक्ष्मण के नेत्रों से जलधारा बह चली और वे फूट-फूट कर रोने लगे। सीता ने चिन्तित होकर उनसे रोने का कारण पूछा। लक्ष्मण ने उनके प्रश्‍न का कोई उत्तर नहीं दिया और रथ से उतर नौका पर सवार हो सीता सहित गंगा के दूसरे तट पर जा पहुँचे।

गंगा के उस तट पर नौका से उतर लक्ष्मण सीता से हाथ जोड़कर बोले, "देवि! आज मुझे बड़े भैया ने वह कार्य सौंपा है जिससे सारे लोक में मेरी भारी निन्दा होगी। मुझे यह बताते हुये भारी पीड़ा हो रही है कि अयोध्या में आपके लंका प्रवास की बात को लेकर भारी अपवाद फैल गया है। इससे अत्यन्त दुःखी होकर महाराज राम ने आपका परित्याग कर दिया है और मुझे आपको यहाँ गंगा तट पर छोड़ जाने का आदेश दिया है। वैसे यह स्थान सर्वथा निरापद है क्योंकि यहाँ महायशस्वी ब्रह्मर्षि वाल्मीकि जी का आश्रम है। आप यहाँ उपवास परायण आदि करती हुईं धार्मिक जीवन व्यतीत करें।"

लक्ष्मण के ये कठोर वचन सुनकर जनकनन्दिनी को ऐसा आघात लगा कि वे मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। फिर चेतना आने पर बोलीं, "लक्ष्मण! क्या विधाता ने मुझे जीवन पर्यन्त दुःख भोगने के लिये ही उत्पन्न किया है? पहले मुझे राघव से अलग होकर लंका में रहना पड़ा और अब उन्होंने मुझे सदा के लिये त्याग दिया। लक्ष्मण! मेरी समझ में यह नहीं आता कि यदि मुनिजन मुझसे यह पूछेंगे कि तुम्हें श्रीराम ने किस अपराध के कारण त्यागा है तो मैं उन्हें क्या उत्तर दूँगी? मेरी सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि मैं गंगाजी में डूब कर अपने प्राण भी विसर्जन नहीं कर सकती, क्योंकि ऐसा करने से मेरे पति का राजवंश नष्ट हो जायेगा। तुम दुःखी क्यों होते हो? तुम तो महाराज की आज्ञा का ही पालन कर रहे हो, जो तुम्हारा कर्तव्य है। जाओ, तुम लौट जाओ और सबसे मेरा सादर प्रणाम कहना।"

सीता से आज्ञा लेकर अत्यन्त दुःखी मन से लक्ष्मण मृतप्राय शरीर को ढोते हुये रथ पर बैठे और बैठते ही मूर्छित हो गये। मूर्छा दूर होने पर वे फिर आँसू बहाने लगे।

उधर सीता विलाप करती हुई चीत्कार करने लगी। दो मुनिकुमारों ने सीता को इस प्रकार विलाप करते देखा तो उन्होंने ब्रह्मर्षि वाल्मीकि के पास जाकर इसका वर्णन किया। यह समाचार सुनकर वाल्मीकि जी सीता जी के पास पहुँचे और बोले, "पतिव्रते! मैंने अपने योगबल से जान लिया है कि तुम राजा दशरथ की पुत्रवधू और मिथिलेश की पुत्री हो। मुझे तुम्हारे परित्याग की बात भी मालूम हो चुकी है। इसलिये तुम मेरे आश्रम में चलकर अन्य तपस्विनी नारियों के साथ निश्‍चिंत होकर निवास करो। वे तुम्हारी यथोचित देखभाल करेंगीं।"

मुनि के वचन सुनकर सीता ने उन्हें श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया और महर्षि के आश्रम में आकर रहने लगी।

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पुरवासियों में अशुभ चर्चा - उत्तरकाण्ड (6)

>> Tuesday, May 4, 2010

जब अयोध्या में शासन करते हुये बहुत समय बीत गया तब एक दिन रामचन्द्रजी सीता के गर्भवती होने का समाचार पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुये। वे सीता से बोले, "विदेहनन्दिनी! अब तुम शीघ्र इक्ष्वाकुवंश को पुत्ररत्न प्रदान करोगी। इस समय तुम्हारी क्या इच्छा है? मैं तुम्हारा मनोरथ अवश्य पूरा करूँगा। तुम निःसंकोच होकर अपने मन की बात कहो।"

पति के मृदु वचन सुनकर सीताजी मुस्कुराकर बोलीं, "स्वामी! मेरी इच्छा एक बार उन पवित्र तपोवनों को देखने की हो रही है। मैं कुछ समय उन महर्षि तपस्वियों के पास रहना चाहती हूँ जो कन्द-मूल-फल खाकर गंगा के तट पर तपस्या करते हैं। कम से कम एक रात्रि वहाँ निवास करके मैं उन्हें उग्र तपस्या करते देखना चाहती हूँ। इस समय यही मेरी अभिलाषा है।"

हृदयेश्वरी की अभिलाषा जानकर रघुनन्दन बोले, "सीते! तुम्हारी अभिलाषा मैं अवश्य पूरी करूँगा। तुम निश्‍चिंत रहो। कल प्रातःकाल ही मैं तुम्हें गंगातट वासी ऋषियों के आश्रम की ओर भेजने की व्यवस्था करा दूँगा।" सीता को आश्‍वासन देकर श्रीराम राजदरबार में चले गये। राजदरबार से निवृत हो वे अपने मित्रों में बैठकर हास्यविनोद की वार्ता करने लगे। मित्रमण्डली में उनके बालसखा विजय, मधुवत्त, काश्यप, मंगल, कुल, सुराजि, कालिय, भद्र, दन्तवक्त्र और सुभागध थे। बातो ही बातों में रामचन्द्र ने पूछा, "भद्र! आजकल नगर में किस बात की चर्चा विशेषरूप से होती है? नगर और जनपद के लोग मेरे, सीता, भरत-लक्ष्मण आदि भाइयों और माता कैकेयी के विषय में क्या-क्या बातें करते हैं? प्रायः देखा जाता है कि राजा यदि आचार-विचार से हीन हो तो सर्वत्र उसकी निन्दा होती है।"

भद्र ने उत्तर दिया, "सौम्य! सर्वत्र आपके विषय में अच्छी ही चर्चा सुनने को मिलती है। दशग्रीव पर जो आपने विजय प्राप्त की है, उसको लेकर सब लोग आपकी खूब प्रशंसा करते हैं और आपकी वीरता के कहानी अपने बच्चों को बड़े उत्साह से सुनाते हैं।"

रामचन्द्र बोले, "भद्र! ऐसा नहीं हो सकता कि सब लोग मेरे विषय में सब अच्छी ही बातें कहें। कुछ ऐसी भी बातें हो सकती हैं जो उन्हें अच्छी न लगती हों। संसार में सभी प्रवृति के लोग होते हैं। इसलिये तुमने जो कुछ भी सुना हो निश्‍चिंत होकर बेखटके कहो। यदि उन्हें मुझमें कोई दोष दिखाई देता होगा तो मैं उसे दूर करने की चेष्ट करूँगा।"

यह सुनकर भद्र बोला, "वे कहते हैं कि श्रीराम ने समुद्र पर पुल बाँध कर ऐसा दुष्कर कार्य किया है जिसे देवता भी नहीं कर सकते। रावण को मारकर वानरों को भी वश में कर लिया परन्तु एक बात खटकती है। रावण को मारकर उस सीता को घर ले आये जो इतने दिनों तक रावण के पास रही। फिर सीता से घृणा करने के बजाय उन्होंने उसे कैसे अपने पास रख लिया? भला सीता का चरित्र क्या वहाँ पवित्र रहा होगा? अब प्रजाजन भी ऐसी स्त्रियों को अपने घरों में रखने लगेंगे क्योंकि जैसा राजा करता है, प्रजा भी वैसा ही करती है। इस प्रकार सारे नगर निवासी भिन्न-भिन्न प्रकार की बातें करते हैं।"

भद्र की बात का अन्य साथियों ने भी यह कहकर समर्थन किया कि 'हमने भी ऐसी बातें लोगों के मुख से सुनी हैं।' सबकी बात सुनकर राजा राम ने उन्हें विदा किया और इस विषय पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने लगे। फिर उन्होंने द्वारपाल को आज्ञा देकर अपने तीनों भाइयों को बुलाया। भाइयों ने आकर उन्हें सादर प्रणाम किया और देखा, श्रीराम बहुत उदास हैं तथा उनके नेत्रों में आँसू डबडबा रहे हैं। श्रीराम ने बड़े आदर से अपने भाइयों को अपने पास बिठाकर कहा, "बन्धुओं! मैंने तुम्हें इसलिये बुलाया है कि मैं तुम्हें उस चर्चा की जानकारी दे दूँ जो पुरवासियों में मेरे और सीता के विषय में चल रही है। उनमें सीता के चरित्र के विषय में घोर अपवाद फैला हुआ है और मेरे विषय में भी उनके मन में घृणा के भाव हैं। लक्ष्मण! यह तो तुम जानते ही हो कि सीता ने अपने चरित्र की पवित्रता सिद्ध करने के लिये सबके सामने अग्नि में प्रवेश किया था और उस समय स्वयं अग्निदेव ने उन्हें निर्दोष बताया था। इस प्रकार विशुद्ध आचार वाली सीता को स्वयं देवराज इन्द्र ने मेरे हाथों में सौंपा था। फिर भी अयोध्या में यह अपवाद फैल रहा है और लोग मेरी निन्दा कर रहे हैं। मैं लोक निन्दा के भय से अपने प्राणों को और तुम्हें भी त्याग सकता हूँ, फिर सीता का परित्याग करना तो मेरे लिये तनिक भी कठिन नहीं होगा। इसलिये लक्ष्मण! कल प्रातः तुम सारथी सुमन्त के साथ सीता को ले जाकर राज्य की सीमा से बाहर छोड़ आओ। गंगा के उस पार तमसा के तट पर महर्षि वाल्मीकि का आश्रम है। उसके निकट उन्हें छोड़कर लौट आना। मैं तुम लोगों को अपने चरणों और जीवन की शपथ देता हूँ, मेरे निर्णय के विरुद्ध कोई कुछ मत कहना। सीता ने गंगातट पर ऋषियों के आश्रम देखने की इच्छा प्रकट की थी, वह भी पूरी हो जायेगी।"

फिर गहरी साँस भरकर नेत्रों में आये आँसू पोंछकर वे मौन हो गये।

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अभ्यागतों की विदाई - उत्तरकाण्ड (5)

>> Monday, May 3, 2010

अब श्री रामचन्द्र जी नियमपूर्क प्रतिदिन राजसभा में बैठकर राजकाज संभालकर शासन चलाने लगे। कुछ दिन पश्‍चात् राजा जनक विदा होकर मिथिला के लिये प्रस्थान किया। इसके पश्‍चात् कैकेय नरेश युधाजित, काशिराज प्रतर्दन तथा अन्य आगत राजा महाराजा भी विनयपूर्वक अयोध्या से विदा हुये। फिर उन्होंने सुग्रीव, हनुमान, अंगद, नील, नल, केसरी कुमुद, गन्धमादन, सुषेण, पनस, वीरमैन्द, द्विविद, जाम्बवन्त, गवाक्ष, विनत, धूम्र, बलीमुख, प्रजंघ, सन्नाद, दरीमुख, दधिमुख, इन्द्रजानु तथा अन्य वानर यूथपतियों को नाना प्रकार के वस्त्राभूषण-रत्‍नादि देकर सम्मानित किया और उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करके उन्हें विदा किया।

फिर वे विभीषण को विदा करते हुये उनसे बोले, "राक्षसराज! तुम धर्मपूर्वक लंका पर शासन करना। तुम धर्मात्मा हो। मुझे विश्‍वास है कि तुम कभी धर्म विरुद्ध कोई कार्य नहीं करोगे। अपनी प्रजा का पुत्रवत् पालन करना।"

विदा होने से पहले हनुमान बोले, "प्रभो! मुझे ऐसा वर दीजिये कि आपके प्रति मेरी अटूट भक्‍ति सदा बनी रहे। आपके सिवा कहीं और मेरा आन्तरिक अनुराग न हो। इस पृथ्वी पर जब तक राम कथा प्रचलित रहे, तब तक मेरे प्राण इस शरीर में ही बसे रहें।"

हनुमान की बात सुनकर श्रीराम ने उन्हें हृदय से लगा लिया और बोले, "ऐसा ही होगा।" संसार में जब तक मेरी कथा प्रचलित रहेगी, तब तक तुम्हारे प्राण भी तुम्हारे शरीर में बने रहेंगे। तुमने जो उपकार किये हैं, उनके लिये मैं सदा तुम्हारा ऋणी रहूँगा।" फिर वे सब लोग श्रीराम का गुणगान करते हुये वहाँ से विदा हुये।

विभीषण, सुग्रीव, हनुमान आदि के विदा हो जाने पर भरत बोले, "राघव! आपको राजसिंहासन पर बैठे एक मास हुआ है। इस अवधि में सभी लोग स्वस्थ और निरोग दिखाई देते हैं। बूढ़े आदमियों के पास भी मृत्यु फटकने में हिचकती है। सभी बाल-युवा नर-नारियों के शरीर हृष्ट-पुष्ट और कान्तिमय प्रतीत होते हैं। मेघ समय पर अमृत के समान जल बरसाते हैं। हवा ऐसी चलती है कि उसका स्पर्श सुखद और शीतल जान पड़ता है।"

भरत की ये बातें सुनकर श्रीराम अत्यन्त प्रसन्न हुये।

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हनुमान के जन्म की कथा - उत्तरकाण्ड (4)

>> Sunday, May 2, 2010

यह कथा सुनकर श्रीराम हाथ जोड़कर अगस्त्य मुनि से बोले, "ऋषिवर! निःसन्देह वालि और रावण दोनों ही भारी बलवान थे, परन्तु मेरा विचार है कि हनुमान उन दोनों से अधिक बलवान हैं। इनमें शूरवीरता, बल, धैर्य, नीति, सद्‍गुण सभी उनसे अधिक हैं। यदि मुझे ये न मिलते तो भला क्या जानकी का पता लग सकता था? मेरे समझ में यह नहीं आया कि जब वालि और सुग्रीव में झगड़ा हुआ तो इन्होंने अपने मित्र सुग्रीव की सहायता करके वालि को क्यों नहीं मार डाला। आप कृपा करके हनुमानजी के बारे में मुझे सब कुछ बताइये।"

रघुनाथजी के वचन सुनकर महर्षि अगस्त्य बोले, "हे रघुनन्दन! आप ठीक कहते हैं। हनुमान अद्‍भुत बलवान, पराक्रमी और सद्‍गुण सम्पन्न हैं, परन्तु ऋषियों के शाप के कारण इन्हें अपने बल का पता नहीं था। मैं आपको इनके विषय में सब कुछ बताता हूँ। इनके पिता केसरी सुमेरु पर्वत पर राज्य करते थे। उनकी पत्‍नी का नाम अंजना था। इनके जन्म के पश्‍चात् एक दिन इनकी माता फल लाने के लिये इन्हें आश्रम में छोड़कर चली गईं। जब शिशु हनुमान को भूख लगी तो वे उगते हुये सूर्य को फल समझकर उसे पकड़ने के लिये आकाश में उड़ने लगे। उनकी सहायता के लिये पवन भी बहुत तेजी से चला। उधर भगवान सूर्य ने उन्हें अबोध शिशु समझकर अपने तेज से नहीं जलने दिया। जिस समय हनुमान सूर्य को पकड़ने के लिये लपके, उसी समय राहु सूर्य पर ग्रहण लगाना चाहता था। हनुमानजी ने सूर्य के ऊपरी भाग में जब राहु का स्पर्श किया तो वह भयभीत होकर वहाँ से भाग गया। उसने इन्द्र के पास जाकर शिकायत की कि देवराज! आपने मुझे अपनी क्षुधा शान्त करने के साधन के रूप में सूर्य और चन्द्र दिये थे। आज जब अमावस्या के दिन मैं सूर्य को ग्रस्त करने के लिये गया तो मैंने देखा कि एक दूसरा राहु सूर्य को पकड़ने जा रहा है।

"राहु की बात सुनकर इन्द्र घबरा गये और राहु को साथ लेकर सूर्य की ओर चल पड़े। राहु को देखकर हनुमान जी सूर्य को छोड़कर राहु पर झपटे। राहु ने इन्द्र को रक्षा के लिये पुकारा तो उन्होंने हनुमान जी के ऊपर वज्र का प्रहार किया जिससे वे एक पर्वत पर जा गिरे और उनकी बायीं ठुड्डी टूट गई। हनुमान की यह दशा देखकर वायुदेव को क्रोध आया। उन्होंने उसी क्षण अपनी गति रोक ली। इससे कोई भी प्राणी साँस न ले सका और सब पीड़ा से तड़पने लगे। तब सारे सुर, असुर, यक्ष, किन्नर आदि ब्रह्मा जी की शरण में गये। ब्रह्मा उन सबको लेकर वायुदेव के पास गये। वे मृत हनुमान को गोद में लिये उदास बैठे थे। जब ब्रह्मा जी ने उन्हें जीवित कर दिया तो वायुदेव ने अपनी गति का संचार करके सब प्राणियों की पीड़ा दूर की। चूँकि इन्द्र के वज्र से हनुमान जी की हनु (ठुड्डी) टूट गई थी, इसलिये तब से उनका नाम हनुमान हो गया। फिर प्रसन्न होकर सूर्य ने हनुमान को अपने तेज का सौंवा भाग दिया। वरुण, यम, कुबेर, विश्‍वकर्मा आदि ने उन्हें अजेय पराक्रमी, अवध्य होने, नाना रूप धारण करने की क्षमता आदि के वर दिया। इस प्रकार नाना शक्‍तियों से सम्पन्न हो जाने पर निर्भय होकर वे ऋषि-मुनियों के साथ शरारत करने लगे। किसी के वल्कल फाड़ देते, किसी की कोई वस्तु नष्ट कर देते। इससे क्रुद्ध होकर ऋषियों ने इन्हें शाप दिया कि तुम अपने बल और शक्‍ति को भूल जाओगे। किसी के याद दिलाने पर ही तुम्हें उनका ज्ञान होगा। तब से उन्हें अपने बल और शक्‍ति का स्मरण नहीं रहा। वालि और सुग्रीव के पिता ऋक्षराज थे। चिरकाल तक राज्य करने के पश्‍चात् जब ऋक्षराज का देहान्त हुआ तो वालि राजा बना। वालि और सुग्रीव में बचपन से ही प्रेम था। जब उन दोनों में बैर हुआ तो सुग्रीव के सहायक होते हुये भी शाप के कारण हनुमान अपने बल से अनजान बने रहे।"

हनुमान के जीवन की यह कथा सुनकर सबको बड़ा आश्‍चर्य हुआ।

जब अगस्त्य तथा अन्य मुनि अयोध्या से विदा होकर जाने लगे तो श्रीराम ने उनसे कहा, "मेरी इच्छा है कि पुरवासी और देशवासियों को अपने-अपने कार्यों में लगाकर मैं यज्ञों का अनुष्ठान करूँ। आपसे प्रार्थना है कि आप सब उन यज्ञों में अवश्य पधारकर भाग लेने की कृपा करें।"

सब ऋषियों ने उसमें भाग लेने की अपनी स्वीकृति प्रदान की। फिर वे वहाँ से विदा होकर अपने-अपने आश्रम को चले गये।

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रावण के जन्म की कथा (2) - उत्तरकाण्ड (3)

>> Saturday, May 1, 2010

अगस्त्य मुनि ने कथा को आगे बढ़ाया, "एक दिन हिमालय प्रदेश में भ्रमण करते हुये रावण ने ब्रह्मर्षि कुशध्वज की कन्या वेदवती को तपस्या करते देखा। वह उस पर मुग्ध हो गया और उसके पास आकर उसका परिचय तथा अविवाहित रहने का कारण पूछा। वेदवती ने अपने परिचय देने के पश्‍चात् बताया कि मेरे पिता विष्णु से मेरा विवाह करना चाहते थे। इससे क्रुद्ध होकर मेरी कामना करने वाले दैत्यराज शम्भु ने सोते में उनका वध कर दिया। उनके मरने पर मेरी माता भी दुःखी होकर चिता में प्रविष्ट हो गई। तब से मैं अपने पिता के इच्छा पूरी करने के लिये भगवान विष्णु की तपस्या कर रही हूँ। उन्हीं को मैंने अपना पति मान लिया है।

"पहले रावण ने वेदवती को बातों में फुसलाना चाहा, फिर उसने जबरदस्ती करने के लिये उसके केश पकड़ लिये। वेदवती ने एक ही झटके में पकड़े हुये केश काट डाले। फिर यह कहती हुई अग्नि में प्रविष्ट हो गई कि दुष्ट! तूने मेरा अपमान किया है। इस समय तो मैं यह शरीर त्याग रही हूँ, परन्तु तेरा विनाश करने के मैं अयोनिजा कन्या के रूप में जन्म लेकर किसी धर्मात्मा की पुत्री बनूँगी। अगले जन्म में वह कन्या कमल के रूप में उत्पन्न हुई। उस सुन्दर कान्ति वाली कमल कन्या को एक दिन रावण अपने महलों में ले गया। उसे देखकर ज्योतिषियों ने कहा कि राजन्! यदि यह कमल कन्या आपके घर में रही तो आपके और आपके कुल के विनाश का कारण बनेगी। यह सुनकर रावण ने उसे समुद्र में फेंक दिया। वहाँ से वह भूमि को प्राप्त होकर राजा जनक के यज्ञमण्डप के मध्यवर्ती भूभाग में जा पहुँची। वहाँ राजा द्वारा हल से जोती जाने वाली भूमि से वह कन्या फिर प्राप्त हुई। वही वेदवती सीता के रूप में आपकी पत्‍नी बनी और आप स्वयं सनातन विष्णु हैं। इस प्रकार आपके महान शत्रु रावण को वेदवती ने पहले ही अपने शाप से मार डाला। आप तो उसे मारने में केवल निमित्तमात्र थे।

"अनेक राजा महाराजाओं को पराजित करता हुआ दशग्रीव इक्ष्वाकु वंश के राजा अनरण्य के पास पहुँचा जो अयोध्या पर राज्य करते थे। उसने उन्हें भी द्वन्द युद्ध करने अथवा पराजय स्वीकार करने के लिये ललकारा। दोनों में भीषण युद्ध हुआ किन्तु ब्रह्माजी के वरदान के कारण रावण उनसे पराजित न हो सका। जब अनरण्य का शरीर बुरी तरह से क्षत-विक्षत हो गया तो रावण इक्ष्वाकु वंश का अपमान और उपहास करने लगा। इससे कुपित होकर अनरण्य ने उसे शाप दिया कि तूने अपने व्यंगपूर्ण शब्दों से इक्ष्वाकु वंश का अपमान किया है, इसलिये मैं तुझे शाप देता हूँ कि महात्मा इक्ष्वाकु के इसी वंश में दशरथनन्दन राम का जन्म होगा जो तेरा वध करेंगे। यह कहकर राजा स्वर्ग सिधार गये।

"रावण की उद्दण्डता में कमी नहीं आई। राक्षस या मनुष्य जिसको भी वह शक्‍तिशाली पाता, उसी के साथ जाकर युद्ध करने करने लगता। एक बार उसने सुना कि किष्किन्धापुरी का राजा वालि बड़ा बलवान और पराक्रमी है तो वह उसके पास युद्ध करने के लिये जा पहुँचा। वालि की पत्‍नी तारा, तारा के पिता सुषेण, युवराज अंगद और उसके भाई सुग्रीव ने उसे समझाया कि इस समय वालि नगर से बाहर सन्ध्योपासना के लिये गये हुये हैं। वे ही आपसे युद्ध कर सकते हैं। और कोई वानर इतना पराक्रमी नहीं है जो आपके साथ युद्ध कर सके। इसलिये आप थोड़ी देर उनकी प्रतीक्षा करें। फिर सुग्रीव ने कहा कि राक्षसराज! सामने जो शंख जैसे हड्डियों के ढेर लगे हैं वे वालि के साथ युद्ध की इच्छा से आये आप जैसे वीरों के ही हैं। वालि ने इन सबका अन्त किया है। यदि आप अमृत पीकर आये होंगे तो भी जिस क्षण वालि से युद्ध करेंगे, वह क्षण आपके जीवन का अन्तिम क्षण होगा। यदि आपको मरने की बहुत जल्दी हो तो आप दक्षिण सागर के तट पर चले जाइये। वहीं आपको वालि के दर्शन हो जायेंगे।

"सुग्रीव के वचन सुनकर रावण विमान पर सवार हो तत्काल दक्षिण सागर में उस स्थान पर जा पहुँचा जहां वालि सन्ध्या कर रहा था। उसने सोचा कि मैं चुपचाप वालि पर आक्रमण कर दूँगा। वालि ने रावण को आते देख लिया परन्तु वह तनिक भी विचलित नहीं हुआ और वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करता रहा। ज्योंही उसे पकड़ने के लिये रावण ने पीछे से हाथ बढ़ाया, सतर्क वालि ने उसे पकड़कर अपनी काँख में दबा लिया और आकाश में उड़ चला। रावण बार-बार वालि को अपने नखों से कचोटता रहा किन्तु वालि ने उसकी कोई चिन्ता नहीं की। तब उसे छुड़ाने के लिये रावण के मन्त्री और अनुचर उसके पीछे शोर मचाते हुये दौड़े परन्तु वे वालि के पास तक न पहुँच सके। इस प्रकार वालि रावण को लेकर पश्‍चिमी सागर के तट पर पहुँचा। वहाँ उसने सन्ध्योपासना पूरी की। फिर वह दशानन को लिये हुये किष्किन्धापुरी लौटा। अपने उपवन में एक आसन पर बैठकर उसने रावण को अपनी काँख से निकालकर पूछा कि अब कहिये आप कौन हैं और किसलिये आये हैं?

"रावण ने उत्तर दिया कि मैं लंका का राजा रावण हूँ। आपके साथ युद्ध करने के लिये आया था। वह युद्ध मुझे प्राप्त हो चुका है। मैंने आपका अद्‍भुत बल देख लिया। अब मैं अग्नि की साक्षी देकर आपसे मित्रता करना चाहता हूँ। फिर दोनों ने अग्नि की साक्षी देकर एक दूसरे से मित्रता स्थापित की।"

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रावण के जन्म की कथा - उत्तरकाण्ड (2)

>> Thursday, April 29, 2010

अगस्त्य मुनि ने कहना जारी रखा, "पिता की आज्ञा पाकर कैकसी विश्रवा के पास गई और उन्हें अपने अभिप्राय से अवगत कराया। उस समय भयंकर आँधी चल रही थी। आकाश में मेघ गरज रहे थे। कैकसी का अभिप्राय जानकर विश्रवा ने कहा कि भद्रे! तुम इस कुबेला में आई हो। मैं तुम्हारी इच्छा तो पूरी कर दूँगा परन्तु इससे तुम्हारी सन्तान दुष्ट स्वभाव वाली और क्रूरकर्मा होगी। मुनि की बात सुनकर कैकसी उनके चरणों में गिर पड़ी और बोली कि भगवन्! आप ब्रह्मवादी महात्मा हैं। आपसे मैं ऐसे दुराचारी सन्तान पाने की आशा नहीं करती। अतः आप मुझ पर कृपा करें। कैकसी के वचन सुनकर मुनि विश्रवा ने कहा कि अच्छा तो तुम्हारा सबसे छोटा पुत्र सदाचारी और धर्मात्मा होगा।

"इस प्रकार कैकसी के दस मुख वाले पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम दशग्रीव रखा गया। उसके पश्‍चात् कुम्भकर्ण, शूर्पणखा और विभीषण के जन्म हुये। दशग्रीव और कुम्भकर्ण अत्यन्त दुष्ट थे, किन्तु विभीषण धर्मात्मा प्रकृति का था। दशग्रीव ने अपने भाइयों सहित ब्रह्माजी की तपस्या की। ब्रह्मा के प्रसन्न होने पर दशग्रीव ने माँगा कि मैं गरुड़, नाग, यक्ष, दैत्य, दानव, राक्षस तथा देवताओं के लिये अवध्य हो जाऊँ। ब्रह्मा जी ने 'तथास्तु' कहकर उसकी इच्छा पूरी कर दी। विभीषण ने धर्म में अविचल मति का और कुम्भकर्ण ने वर्षों तक सोते रहने का वरदान पाया।

"फिर दशग्रीव ने लंका के राजा कुबेर को विवश किया कि वह लंका छोड़कर अपना राज्य उसे सौंप दे। अपने पिता विश्रवा के समझाने पर कुबेर ने लंका का परित्याग कर दिया और रावण अपनी सेना, भाइयों तथा सेवकों के साथ लंका में रहने लगा। लंका में जम जाने के बाद अपने बहन शूर्पणखा का विवाह कालका के पुत्र दानवराज विद्युविह्वा के साथ कर दिया। उसने स्वयं दिति के पुत्र मय की कन्या मन्दोदरी से विवाह किया जो हेमा नामक अप्सरा के गर्भ से उत्पन्न हुई थी। विरोचनकुमार बलि की पुत्री वज्रज्वला से कुम्भकर्ण का और गन्धर्वराज महात्मा शैलूष की कन्या सरमा से विभीषण का विवाह हुआ। कुछ समय पश्‍चात् मन्दोदरी ने मेघनाद को जन्म दिया जो इन्द्र को परास्त कर संसार में इन्द्रजित के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

"सत्ता के मद में रावण उच्छृंखल हो देवताओं, ऋषियों, यक्षों और गन्धर्वों को नाना प्रकार से कष्ट देने लगा। एक बार उसने कुबेर पर चढ़ाई करके उसे युद्ध में पराजित कर दिया और अपनी विजय की स्मृति के रूप में कुबेर के पुष्पक विमान पर अधिकार कर लिया। उस विमान का वेग मन के समान तीव्र था। वह अपने ऊपर बैठे हुये लोगों की इच्छानुसार छोटा या बड़ा रूप धारण कर सकता था। विमान में मणि और सोने की सीढ़ियाँ बनी हुई थीं और तपाये हुये सोने के आसन बने हुये थे। उस विमान पर बैठकर जब वह 'शरवण' नाम से प्रसिद्ध सरकण्डों के विशाल वन से होकर जा रहा था तो भगवान शंकर के पार्षद नन्दीश्‍वर ने उसे रोकते हुये कहा कि दशग्रीव! इस वन में स्थित पर्वत पर भगवान शंकर क्रीड़ा करते हैं, इसलिये यहाँ सभी सुर, असुर, यक्ष आदि का आना निषिद्ध कर दिया गया है। नन्दीश्‍वर के वचनों से क्रुद्ध होकर रावण विमान से उतरकर भगवान शंकर की ओर चला। उसे रोकने के लिये उससे थोड़ी दूर पर हाथ में शूल लिये नन्दी दूसरे शिव की भाँति खड़े हो गये। उनका मुख वानर जैसा था। उसे देखकर रावण ठहाका मारकर हँस पड़ा। इससे कुपित हो नन्दी बोले कि दशानन! तुमने मेरे वानर रूप की अवहेलना की है, इसलिये तुम्हारे कुल का नाश करने के लिये मेरे ही समान पराक्रमी रूप और तेज से सम्पन्न वानर उत्पन्न होंगे। रावण ने इस ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया और बोला कि जिस पर्वत ने मेरे विमान की यात्रा में बाधा डाली है, आज मैं उसी को उखाड़ फेंकूँगा। यह कहकर उसने पर्वत के निचले भाग में हाथ डालकर उसे उठाने का प्रयत्न किया। जब पर्वत हिलने लगा तो भगवान शंकर ने उस पर्वत को अपने पैर के अँगूठे से दबा दिया। इससे रावण का हाथ बुरी तरह से दब गया और वह पीड़ा से चिल्लाने लगा। जब वह किसी प्रकार से हाथ न निकाल सका तो रोत-रोते भगवान शंकर की स्तुति और क्षमा प्रार्थना करने लगा। इस पर भगवान शंकर ने उसे क्षमा कर दिया और उसके प्रार्थाना करने पर उसे एक चन्द्रहास नामक खड्ग भी दिया।"

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रावण के पूर्व के राक्षसों के विषय में - उत्तरकाण्ड (1)

>> Wednesday, April 28, 2010

श्रीराम का राज्य अयोध्या में स्थापित हो गया तो एक दिन समस्त ऋषि-मुनि श्रीरघुनाथजी का अभिनन्दन करने के लिये अयोध्यापुरी में आये। श्रीरामचन्द्रजी ने उन सबका यथोचित सत्कार किया। वार्तालाप करते हुये अगस्त्य मुनि कहने लगे, "युद्ध में आपने जो रावण का संहार किया, वह कोई बड़ी बात नहीं है, परन्तु द्वन्द युद्ध में लक्ष्मण के द्वारा इन्द्रजित का वध सबसे अधिक आश्‍चर्य की बात है। यह मायावी राक्षस युद्ध में समस्त प्राणियों के लिये अवध्य था।"

उनकी बात सुनकर रामचन्द्रजी को बड़ा आश्‍चर्य हुआ। वे बोले, "मुनिवर! रावण और कुम्भकर्ण भी तो महान पराक्रमी थे, महोदर, प्रहस्त, विरूपाक्ष भी कम वीर न थे, फिर आप केवल इन्द्रजित मेघनाद की ही इतनी प्रशंसा क्यों करते हैं?"

इस पर अगस्त्य मुनि बोले, "इस प्रश्‍न का उत्तर देने से पहले मैं तुम्हें रावण के जन्म, वर प्राप्ति आदि का विवरण सुनाता हूँ। ब्रह्मा जी के पुलस्त्य नामक पुत्र हुये थे जो उन्हीं के समान तेजस्वी और गुणवान थे। एक बार वे महगिरि पर तपस्या करने गये। वह स्थान अत्यन्त रमणीक था। इसलिये ऋषियों, नागों, राजर्षियों आदि की कन्याएँ वहाँ क्रीड़ा करने आ जाती थीं। उन कन्याओं की उपस्थिति के कारण उनकी तपस्या में विघ्न पड़ता था। उन्होंने उन्हें वहाँ आने से मना किया। जब वे नहीं मानीं तो उन्होंने शाप दे दिया कि कल से जो कन्या यहाँ मुझे दिखाई देगी, वह गर्भवती हो जायेगी। शेष सब कन्याओं ने तो वहाँ आना बन्द कर दिया, परन्तु राजर्षि तृणबिन्दु की कन्या शाप की बात से अनभिज्ञ होने के कारण उस आश्रम में आ गई और महर्षि के द‍ृष्टि पड़ते ही गर्भवती हो गई। जब तृणबिन्दु को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने अपने कन्या को पत्‍नी के रूप में महर्षि को अर्पित कर दिया। इस प्रकार विश्रवा का जन्म हुआ जो अपने पिता के समान वेद्‍‍विद और धर्मात्मा हुआ। महामुनि भरद्वाज ने अपनी कन्या का विवाह विश्रवा से कर दिया। उनके वैश्रवण नामक पुत्र हुआ। वह भी धर्मात्मा और विद्वान था। उसने भारी तपस्या करके ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया और इन्द्र तथा वरुण के सद‍ृश लोकपाल का पद पाया। फिर उसने त्रिकूट पर्वत पर बसी लंका को अपना निवास स्थान बनाया और राक्षसों पर राज्य करने लगा।"

श्रीराम ने आश्‍चर्य से पूछा, "तो क्या कुबेर और रावण से भी पहले लंका में माँसभक्षी राक्षस रहते थे? फिर उनका पूर्वज कौन था? यह सुनने के लिये मुझे कौतूहल हो रहा है?"

अगस्त्य जी बोले, "पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने अनेक जल जन्तु बनाये और उनसे समुद्र के जल की रक्षा करने के लिये कहा। तब उन जन्तुओं में से कुछ बोले कि हम इसका रक्षण (रक्षा) करेंगे और कुछ ने कहा कि हम इसका यक्षण (पूजा) करेंगे। इस पर ब्रह्माजी ने कहा कि जो रक्षण करेगा वह राक्षस कहलायेगा और जो यक्षण करेगा वह यक्ष कहलायेगा। इस प्रकार वे दो जातियों में बँट गये। राक्षसों में हेति और प्रहेति दो भाई थे। प्रहेति तपस्या करने चला गया, परन्तु हेति ने भया से विवाह किया जिससे उसके विद्युत्केश नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। विद्युत्केश के सुकेश नामक पराक्रमी पुत्र हुआ। सुकेश के माल्यवान, सुमाली और माली नामक तीन पुत्र हुये। तीनों ने ब्रह्मा जी की तपस्या करके यह वरदान प्राप्त कर लिये कि हम लोगों का प्रेम अटूट हो और हमें कोई पराजित न कर सके। वर पाकर वे निर्भय हो गये और सुरों, असुरों को सताने लगे। उन्होंने विश्‍वकर्मा से एक अत्यन्त सुन्दर नगर बनाने के लिये कहा। इस पर विश्‍वकर्मा ने उन्हें लंकापुरी का पता बताकर भेज दिया। वहाँ वे बड़े आनन्द के साथ रहने लगे। माल्यवान के वज्रमुष्टि, विरूपाक्ष, दुर्मुख, सुप्तघ्न, यज्ञकोप, मत्त और उन्मत्त नामक सात पुत्र हुये। सुमाली के प्रहस्त्र, अकम्पन, विकट, कालिकामुख, धूम्राक्ष, दण्ड, सुपार्श्‍व, संह्नादि, प्रधस एवं भारकर्ण नाम के दस पुत्र हुये। माली के अनल, अनिल, हर और सम्पाती नामक चार पुत्र हुये। ये सब बलवान और दुष्ट प्रकृति होने के कारण ऋषि-मुनियों को कष्ट दिया करते थे। उनके कष्टों से दुःखी होकर ऋषि-मुनिगण जब भगवान विष्णु की शरण में गये तो उन्होंने आश्‍वासन दिया कि हे ऋषियों! मैं इन दुष्टों का अवश्य ही नाश करूँगा।

"जब राक्षसों को विष्णु के इस आश्‍वासन की सूचना मिली तो वे सब मन्त्रणा करके संगठित हो माली के सेनापतित्व में इन्द्रलोक पर आक्रमण करने के लिये चल पड़े। समाचार पाकर भगवान विष्णु ने अपने अस्त्र-शस्त्र संभाले और राक्षसों का संहार करने लगे। सेनापति माली सहित बहुत से राक्षस मारे गये और शेष लंका की ओर भाग गये। जब भागते हुये राक्षसों का भी नारायण संहार करने लगे तो माल्यवान क्रुद्ध होकर युद्धभूमि में लौट पड़ा। भगवान विष्णु के हाथों अन्त में वह भी काल का ग्रास बना। शेष बचे हुये राक्षस सुमाली के नेतृत्व में लंका को त्यागकर पाताल में जा बसे और लंका पर कुबेर का राज्य स्थापित हुआ।

राक्षसों के विनाश से दुःखी होकर सुमाली ने अपनी पुत्री कैकसी से कहा कि पुत्री! राक्षस वंश के कल्याण के लिये मैं चाहता हूँ कि तुम परम पराक्रमी महर्षि विश्रवा के पास जाकर उनसे पुत्र प्राप्त करो। वही पुत्र हम राक्षसों की देवताओं से रक्षा कर सकता है।"

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भरत-मिलाप तथा राम का राज्यभिषेक - युद्धकाण्ड (26)

>> Monday, April 26, 2010

हर्षविभोर भरत ने शत्रुघ्न को बुलाकर उन्हें यह शुभ समाचार सुनाया और रामचन्द्रजी के भव्य स्वागत की तैयारी करने का आदेश देते हुए कहा, "सभी देवस्थानों में सुगंधित पुष्पों द्वारा पूजन हो। सभी वैतालिक, नृत्यांगनाएँ, रानियाँ, मन्त्रीगण, सेनाएँ और नगर के प्रमुख जन श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन और स्वागत के लिये नगर के बाहर चलें। नगर के सभी मार्गों, बाजारों तथा अट्टालिकाओं को ध्वजा-पताकाओं आदि से सजाया जाये।"

दूसरे दिन प्रातःकाल सभी श्रेष्ठ नगरनिवासी, मन्त्रीगण, अन्तःपुर की रानियाँ आदि असंख्य सैनिकों के साथ श्रीराम की अगवानी के लिये उत्साहपूर्वक नन्दिग्राम आ पहुँचे। कौसल्या, सुमित्रा, कैकेयी आदि महारानियाँ अन्तःपुरवासी रानियों का नेतृत्व कर रही थीं। सभी के हाथों में रंग-बिरंगी पुष्पमालाएँ थीं। चीर वस्त्र और कृष्ण मृगचर्म धारण किये भरत मन्त्रियों एवं पुरहितों से घिरे हुये सिर पर चरणपादुकाएँ धरे प्रतीक्षा कर रहे थे। तभी दूर से दिव्य पुष्पक विमान आता दिखाई दिया। समस्त उपस्थित पुरवासियों के मन में हर्ष की लहर दौड़ गई और वे रामचन्द्रजी का जयजयकार करने लगे। भरत ने आगे बढ़कर अर्ध्य-पाद्य आदि से श्रीराम का पूजन किया और उनके चरणों में साष्टांग प्रणाम किया। रामचन्द्र जी ने आगे बढ़कर उन्हें अपने हृदय से लगा लिया। फिर भरत ने वैदेही के चरण स्पर्श करके लक्ष्मण को अपने हृदय से लगा लिया। इसके पश्‍चात् वे विभीषण, सुग्रीव तथा अन्य वानर वीरों से बड़े प्रेम से मिले। फिर शत्रुघ्न भी सबसे उसी प्रकार मिले जिस प्रकार भरत मिले थे। श्रीराम ने तीनों माताओं का पास जाकर बारी-बारी से सबके चरणस्पर्श किये। उनका आशीर्वाद ग्रहण करके उन्होंने गुरु वसिष्ठ के पास जाकर उन्हें प्रणाम किया। उधर सब नागरिक उच्च स्वर में उनका अभिनन्दन, स्वागत और जयजयकार कर रहे थे।

फिर भरत ने चरणपादुकाएँ रामचन्द्र को पहनाते हुये कहा, "प्रभो! मेरे पास धरोहर के रूप में रखा हुआ आपका यह सारा राज्य मैंने आज आपके चरणों में लौटा दिया है। आज मेरा जन्म सफल हो गया। आपके प्रताप से राज्य का कोष, सेना आदि सब पहले से दस गुना हो गया है।"

भरत की बात सुनकर विभीषण तथा समस्त वानरों के नेत्रों से अश्रुधारा बह चली। विमान को कुबेर के पास लौट जाने का आदेश देकर रामचन्द्रजी गुरुवर वसिष्ठ जी के पा आकर बैठ गये।

भरत ने विनयपूर्वक श्रीराम से कहा, "रघुनन्दन! अब सबकी यह इच्छा है कि सब लोग आपका शीघ्र से शीघ्र राज्याभिषेक देखें। जब तक नक्षत्रमण्डल घूमता रहे और जब तक यह पृथ्वी स्थित है, तब तक आप इस संसार के स्वामी बने रहें। अब आप इस वनवासी के वेश का परित्याग कर राजसी वेश धारण करें। भरत के प्रेमभरे शब्द सुनकर रघुनाथजी ने 'तथास्तु' कहा और तत्काल राज्याभिषेक की तैयारियाँ होने लगीं। सीता, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, समस्त रानियाँ, विभीषण, सुग्रीव तथा अन्य वानरों ने भी सुन्दर वस्त्राभूषण धारण किये। राजसी वेश धारणकर रामचन्द्रजी नगर की ओर चले। भरत सारथी बनकर उनका रथ चलारहे थे, शत्रुघ्न ने छत्र लगा रखा था, लक्ष्मण रामचन्द्रजी के मस्तक पर चँवर डुला रहे थे। एक ओर लक्ष्मण और दूसरी ओर विभीषण खड़े थे। उन्होंने श्‍वेत चँवर हाथ में ले रखे थे। वानरराज सुग्रीव शत्रुंजय नामक गज पर सवार थे। समस्त नगरवासियों ने जयजयकार किया और श्रेष्ठियों ने आगे बढ़कर उन्हें बधाई दी। फिर पुरवासी उनके पीछे-पीछे चलने लगे।

श्रीराम के अभिषेक के लिये चारों समुद्रों और समस्त पवित्र सरिताओं का जल मँगवाया गया। वसिष्ठ जी ने सीता सहित श्रीराम को रत्‍नजटित चौकी पर बिठाया। फिर वसिष्ठ, वामदेव, जावालि, काश्यप, कात्यायन, सुयज्ञ गौतम और विजय ने उनका अभिषेक किया। फिर अन्य मन्त्रियों, सेनापतियों, श्रेष्ठियों आदि ने उनका अभिषेक किया। उस समय श्रीराम ने ब्राह्मण को गौएँ, स्वर्ण मुद्राएँ, बहुमूल्य आभूषण तथा वस्त्रादि बाँटे। फिर उन्होंने विभीषण, सुग्रीव, अंगद तथा अन्य वानरों को भी उपहार दिये। सीता जी ने अपने गले का हार उतारकर स्नेहपूर्वक पवनपुत्र को दिया। फिर सभी वानरादि विदा होकर अपने-अपने स्थानों को चले गये।

राज्य करते हुये राजा रामचन्द्र ने सौ अश्‍वमेघ यज्ञ तथा पौण्डरी एवं वाजपेय यज्ञ किये। रामराज्य में चोरी, दुराचरण, वैधव्य, बाल-मृत्यु आदि की घटनाएँ कभी नहीं हुईं। सारी प्रजा धर्म में रत रहती थी। इस प्रकार राम ने ग्यारह हजार वर्ष तक राज्य किया।

॥वाल्मीकि रामायण लंकाण्ड समाप्त॥

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अयोध्या को प्रस्थान - युद्धकाण्ड (25)

>> Sunday, April 25, 2010

एक रात्रि विश्राम करने के पश्‍चात् श्री रामचन्द्र जी ने विभीषण को बुलाकर कहा, "हे लंकेश! मेरा वनवास का समय पूरा होने को है। अब मेरा मन भरत से मिलने के लिये उद्विग्न हो रहा है। वे मुझे स्मरण करके दुःखी हो रहे होंगे। इस लिये तुम ऐसा प्रबन्ध करो कि हम शीघ्रातिशीघ्र अयोध्या पहुँच जायें।"

यह सुनकर विभीषण ने कहा, "हे प्रभो! आप चिन्ता न करें। मैं एक ही दिन में आपको अयोध्यापुरी पहुँचा दूँगा। वैसे मेरी इच्छा यह थी कि आप कुछ दिन यहाँ रुक कर मेरा आतिथ्य स्वीकार करते।"

जब श्रीरामचन्द्रजी ने वहाँ ठहरने में अपनी असमर्थता दिखाई तो विभीषण ने तत्काल पुष्पक विमान मँगाया, जो स्वर्ण से बना हुआ और नाना प्रकार के रत्नों से सुसज्जित था। रामचन्द्रजी सब वानरों का उनके द्वारा की गई सहायता के लिये आभार प्रकट करके सीता और लक्ष्मण के साथ विमान पर सवार हुये। सुग्रीव सहित सब वानरों और विभीषण ने भी उनके साथ अयोध्या चलने का आग्रह किया तो उन्होंने कृपा करके सबको उसी विमान पर अपने साथ ले लिया। विमान आकाश में उड़ने लगा। रामचन्द्र सीता को लंका, सागर, सुवर्णमय पर्वत हिरण्यनाभ, सेतुबंध, किष्किन्धा नगरी को दिखाकर उनका महत्व बताने लगे। बीच-बीच में सीता-हरण के पश्‍चात् की घटनाओं का भी विशद वर्णन करते जाते थे। जब विमान किष्किन्धा नगरी पहुँचा तो वैदेही ने सुग्रीव की भार्या तारा आदि को भी अपने साथ अयोध्या ले चलने का आग्रह किया।

रघुनाथजी ने विमान को वहाँ रुकवाकर सुग्रीव तथा अन्य यूथपतियों से कहा कि वे शीघ्र अपने-अपने परिजनों को, जो अयोध्या चलने के लिये उत्सुक हों, जाकर ले आयें। श्रीराम की आज्ञा पाते ही वे सब अपने परिजनों को बुला लाये। फिर विमान अपने गन्तव्य की ओर चल पड़ा। विमान चलते ही रामचन्द्र ने सीता को ऋष्यमूक पर्वत दिखाया जहाँ उन्होंने सुग्रीव से भेंट की थी। फिर उन्होंने शबरी की कथा सुनाते हुये पम्पा दिखाया। जटायु के मरने का स्थान, महात्मा सुतीक्ष्ण तथा शरभ के आश्रम, श्रृंगवेपुर आदि दिखाते हुये भरद्वाज मुनि के आश्रम पर पहुँचे। वहाँ उन्होंने विमान उतारा।

भरद्वाज मुनि के आश्रम में पहुँचकर उन्होंने मुनि को सादर प्रणाम किया और कुशलक्षेम के पश्‍चात् अयोध्यापुरी, भरत तथा माताओं के विषय में सूचनाएँ प्राप्‍त कीं। फिर उन्होंने हनुमान से कहा, "वानरराज! मैं चाहता हूँ कि मेरे अयोध्या पहुँचने से पहले तुम अयोध्या जाकर पता लगाओ कि राजभवन में सब कुशल से तो हैं। तुम श्रृंगवेरपुर पहुँचकर वनवासी निषादराज से भी भेंट करो। उनसे तुम्हें अयोध्या का मार्ग भी ज्ञात हो जायेगा। भरत से मिलकर उन्हें हमारा कुशल समाचार देना और यहाँ हुई समस्त घटनाओं से उन्हें अवगत कराना। उन्हें यह भी बता देना कि हम लोग सफलमनोरथ होकर राक्षसराज विभीषण, वानरराज सुग्रीव तथा अन्य मित्रों के साथ प्रयागराज तक आ पहुँचे हैं। साथ ही भरत की मुखमुद्रा का भी सूक्ष्म अध्ययन करना। यदि उन्हें हमारा आगमन अरुचिकर प्रतीत हो तो मुझे सूचित करना। ऐसी दशा में हम अयोध्या से दूर रहकर तपस्वी जीवन व्यतीत करेंगे। तुम शीघ्र जाकर उन्हें सब बातों की सूचना दो।"

प्रभु की आज्ञा पाकर हनुमान मनुष्य का रूप धारणकर तीव्रगति से अयोध्या की ओर चल पड़े। पहले वे गंगा और यमुना के संगम को परकर श्रृंगवेरपुर पहुँचे और वहीं निषादराज गुह से मिले। उन्हें श्रीराम का कुशल समाचार देकर वे परशुराम तीर्थ, वालुकिनी नदी, वरूथी, गोमती आदि नदियों को पार करते हुये नन्दिग्राम जा पहुँचे। अयोध्या से एक कोस की दूरी पर उन्होंने चीर वस्त्र और काला मृगचर्म धारण किये हुये दुर्बल भरत को देखा। वे तपस्यारत ब्रह्मर्षि के सद‍ृश दिखाई दे रहे थे। भरत जी के पास पहुँचकर पवनपुत्र हनुमान ने दोनों हाथ जोड़कर उनसे निवेदन किाय, "देव! श्रीरघुनाथजी ने आपको अपना कुशल समाचार कहलाया है और आपका कुशल समाचार पूछा है। आप इस अत्यन्त दारुण शोक का परित्याग करें। आप शीघ्र ही श्रीराम से मिलेंगे।"

यह शुभ समाचार सुनकर भरत का हृदय हर्ष से भर उठा। उन्होंने बड़े उत्साह से पवनपुत्र को प्रमपूर्वक अपने हृदय से लगा लिया और बोले, "भैया! तुमने जो मुझे यह प्रिय संवाद सुनाया है इसके बदले में मैं तुम्हें क्या दूँ। मुझे कोई ऐसी वस्तु दिखाई नहीं देती जो तुम्हारी इस शुभ सूचना का उचित उपहार हो सके। फिर भी मैं तुम्हें इसके लिये सौ उत्तम गाँव, एक लाख गौएँ और उत्तम आचार वाली स्वर्ण, रत्‍न तथा आभूषणों से सुसज्जित सोलह कुलीन कुमारी कन्याएँ पत्‍नीरूप में समर्पित करता हूँ।"

फिर बोले, "सौम्य! मुझे यह बताओ कि श्रीरघुनाथजी का और वानरों का मेल-मिलाप कैसे हुआ?" भरत के इस प्रश्‍न के उत्तर में हनुमान ने श्रीराम के वनवास से लेकर दण्डकारण्य में प्रवेश करके विराध को मारने, शरभंग मुनि के स्वर्ग सिधारने, खर-दूषण तथा त्रिशरा को मारने, सीताहरण, गिद्धराज जटायु की मृत्यु, सीता की खोज करते हुये सुग्रीव से भेंट होने का विवरण सुनाकर उन्होंने सीता की खोज करने, सागर पर पुल बाँधने तथा सपरिवार रावण को मारकर वैदेही को मुक्‍त कराने तक का वृतान्त सुना डाला। यह भी बता दिया कि अब रामचन्द्रजी पुष्पक विमान से अयोध्या आ रहे हैं।

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सीता की अग्नि परीक्षा - युद्धकाण्ड (24)

>> Friday, April 23, 2010

अपने समक्ष सीता को विनयपूर्वक नतमस्तक खड़ा देख रामचन्द्र जी बोले, "भद्रे! रावण से तुम्हें मुक्त कर के मैंने स्वयं के ऊपर लगे कलंक को धो डाला है। शत्रुजनित अपमान और शत्रु दोनों को ही एक साथ मैंने नष्ट कर डाला है। इस समय अपनी प्रतिज्ञा को पूरी करके मैं उसके भार से मुक्‍त हो गया हूँ। युद्ध का यन परिश्रम मैंने तुम्हें पाने के लिये नहीं किया है बल्कि वह केवल सदाचार की रक्षा और फैले हुये अपवाद का निराकरण करने के लिये किया गया है। तुम्हारे चरित्र में सन्देह का अवसर उपस्थित है, इसलिये आज तुम मुझे अत्यन्त अप्रिय जान पड़ रही हो। अतः हे जनककुमारी! मैं तुम्हें अनुमति प्रदान करता हूँ कि तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, चली जाओ। रावण तुम्हें अपनी गोद में उठाकर ले गया और तुम पर अपनी दूषित द‍ृष्टि डाल चुका है। ऐसी दशा में मैं फिर तुम्हें कैसे ग्रहण कर सकता हूँ? मेरा यह निश्‍चित विचार है।"

अपने पति के ये वचन सुनकर सीता के नेत्रों से अश्रुधारा बह चली। वह बोली, "वीर! आप ऐसी अनुचित कर्णकटु बातें सुना रहे हैं जो निम्नश्रेणी का पुरुष भी अपनी निम्नकोटि की स्त्री से कहते समय संकोच करता है। आज आप मुझ पर ही नहीं, समुचित स्त्री जाति के चरित्र पर सन्देह कर रहे हैं। रावण के शरीर से जो मेरे शरीर का स्पर्श हुआ है, उसमें मेरी विवशता ही कारण थी, मेरी इच्छा नहीं। जब आपने मेरी खोज लेने के लिये लंका में हनुमान को भेजा था, उसी समय आपने मुझे क्यों नहीं त्याग दिया?"

इतना कहते-कहते सीता का कण्ठ अवरुद्ध हो गया। फिर वे लक्ष्मण से बोलीं, "सुमित्रानन्दन! मेरे लिये चिता तैयार कर दो। मैं मिथ्या कलंक से कलंकित होकर जीवित नहीं रहना चाहती। मेरे स्वामी ने भरी सभा में मेरा परित्याग किया है, इसलिये अग्नि प्रवेश ही मेरे लिये उचित मार्ग है।"

लक्ष्मण ने दुःखी होकर श्रीराम की ओर देखा और उनका स्पष्ट संकेत पाकर उन्होंने चिता तैयार की। श्रीराम की प्रलयकारी मुख-मुद्रा देखकर कोई भी उन्हें समझाने का साहस न कर सका। सीता ने चिता की परिक्रमा करके और राम, देवताओं तथा ब्राह्मणों को प्रणाम करके यह कहते हुये चिता में प्रवेश किया, "यदि मेरा हृदय कभी एक क्षण के लिये भी श्री रघुनाथ जी से दूर न हुआ हो तो सम्पूर्ण संसार के साक्षी अग्निदेव मेरी रक्षा करें।"

वैदेही को अग्नि में प्रवेश करते देख सभी उपस्थित वानर और राक्षस हाहाकार करने लगे। तभी ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, वरुण सहित अने देवताओं ने श्रीराम के पास आकर कहा, "श्रीराम! आप ज्ञानियों में श्रेष्ठ हैं, फिर इस समय आग मे गिरी हुई सीता के उपेक्षा कैसे कर रहे हैं? आज आप यह साधारण अज्ञानी मनुष्यों जैसा आचरण क्यों कर रहे हैं?"

इसी समय मूर्तिमान अग्निदेव वैदेही सीता को चिता में से लेकर उठ खड़े हुये। उस समय सीता जी प्रातःकालीन सूर्य की भाँति कान्तियु्क्‍त प्रतीत हो रही थीं। अग्नि ने रघुनाथ जी को सीता को सौंपते हुये कहा, "श्रीराम! आपकी पत्नी सीता परम पतिव्रता है। इसमें कोई पाप या दोष नहीं है, इसे स्वीकार करें।"

अग्निदेव के वचन सुनकर श्रीराम ने प्रसन्नतापूर्वक सीता को स्वीकार करते हुये कहा, "मैं जानता हूँ, सीता बिल्कुल पवित्र है। लोगों को इनकी पवित्रता का विश्‍वास दिलाने के लिये मुझे यह परीक्षा लेनी पड़ी। आप सब लोग मेरे हितैषी हैं। इसीलिये कष्ट उठाकर इस समय यहाँ पधारे हैं।"

राम के वचन सुनकर महादेव जी बोले, "श्रीराम! दुष्ट-दलन का कार्य सम्पन्न हुआ। अब आपको शीघ्र अयोध्या लौटकर माताओं, भरत, पुरवासियों आदि की व्याकुल प्रतीक्षा की घड़ियों को समाप्त करना चाहिये। देखो, सामने आपके पिता दशरथ जी विमान में विराजमान हैं।"

महादेव जी की यह बात सुन कर लक्ष्मण सहित रामचन्द्र जी ने विमान में अपने पिता को बैठा देखकर उन्हें सादर प्रणाम किया। महाराज दशरथ ने उन्हे आशीर्वाद देकर स्वर्ग को प्रस्थान किया।

दशरथ के विदा होने पर देवराज इन्द्र ने कहा, "हे रघुनाथ! तुमने राक्षसों का संहार करके आज देवताओं को निर्भय कर दिया। इसलिये मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। तुम जो चाहो, वरदान मुझसे माँग लो।"

इन्द्र को प्रसन्न देख श्रीराम बोले, "हे देवराज! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरी प्रार्थना है कि मेरे लिये पराक्रम करते हुये वानरादि जो वीर यमलोक को चले गये हैं, उन्हें नवजीवन प्रदान कर पुनः जीवित कर दें और वे पूर्णतया स्वस्थ होकर मुझसे मिलें।"

इन्द्र ने प्रसन्नतापूर्वक श्रीराम की इच्छा पूरी कर दी।

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विभीषण का राज्याभिषेक और सीता की वापसी - युद्धकाण्ड (23)

>> Wednesday, April 21, 2010

युद्ध की समाप्ति पर श्री राम ने मातलि को सम्मानित करते हुए इन्द्र के दिये हुये रथ को लौटा दिया। तत्पश्चात उन्होंने समस्त वानर सेनानायकों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुये उनका यथोचित सम्मान किया। फिर वे लक्ष्मण से बोले, "सौम्य! अब तुम लंका में जाकर विभीषण का राज्याभिषेक करो, क्योंके इन्होंने मुझ पर बहुत बड़ा उपकार किया है।"

रघुनाथ जी की आज्ञा पाकर लक्ष्मण ने प्रसन्नतापूर्वक सोने का घड़ा उठाया और एक वानर यूथपति को समुद्र का जल भर लाने का आदेश दिया। उन्होंने लंकापुरी में जल से भरे उस घट को उत्तम स्थान पर स्थापित किया। फिर उस जल से विभीषण का वेदोक्‍त रीति से अभिषेक किया। राजसिंहासन पर विराजमान विभीषण उस समय अत्यन्त तेजस्वी प्रतीत हो रहे थे। लक्ष्मण के पश्‍चात् अन्य सभी उपस्थित राक्षसों और वानरों ने भी उनका अभिषेक किया। विभीषण को लंका के सिंहासन पर अभिषिक्‍त देख उसके मन्त्री और प्रेमी अत्यन्त प्रसन्न हुये। वे श्रीराम की स्तुति करने लगे। उन्होंने अपने निष्ठा का आश्‍वासन देते हुये दहीं, अक्षत, मिष्ठान्न, पुष्प आदि अपने नये नरेश को अर्पित किये और 'महाराज विभीषण की जय', 'श्रीरामचन्द्र जी की जय' का उद्‍घोष किया। विभीषण ने सभी प्रकार की मांगलिक वस्तुएँ लक्ष्मण को भेंट की और रघुनाथ जी के प्रति भक्‍ति प्रकट की।

जब लक्ष्मण विभीषण का राज्याभिषेक कर लौट आये तो श्री रामचन्द्र जी ने हनुमान से कहा, "महावीर! तुम महाराज विभीषण की आज्ञा लेकर लंकापुरी में जाओ और वैदेही को यह समाचार दो कि रावण युद्ध में मारा गया है और वे लौटने की तैयारी करें।"

रघुनाथ जी की आज्ञा पाकर हनुमान विभीषण की अनुमति ले अशोकवाटिका में पहुँचे और वैदेही को श्रद्धापूर्वक प्रणाम करके बोले, "माता! श्री रामचन्द्र जी लक्ष्मण और सुग्रीव के साथ कुशल हैं। अपने शत्रु का वध करके वे अपने मनोरथ में सफल हुए। रावण अपनी सेना सहित युद्ध में मारा गया। विभीषण का राज्याभिषेक कर दिया गया है। इस प्रकार अब आप निर्भय हों। आपको यहाँ भारी कष्ट हुआ। इन निशाचरियों ने भी आपको कुछ कम कष्ट नहीं दिया है। यदि आप आज्ञा दें तो मैं मुक्कों, लातों से इन सबको यमलोक पहुँचा दूँ।"

हनुमान की यह बात सुनकर सब निशाचरियाँ भय से थर-थर काँपने लगीं। परन्तु करुणामयी सीता बोलीं, "नहीं वीर! इसमें इनका कोई दोष नहीं है। ये तो रावण की आज्ञा का ही पालन करती थीं। इसके अतिरिक्‍त पूर्वजनित कर्मों का फल तो मुझे भोगना ही था। यदि फिर भी इन दासियों का कुछ अपराध हो तो उसे मैं क्षमा करती हूँ। अब तुम ऐसी व्यवस्था करो कि मैं शीघ्र प्राणनाथ के दर्शन कर सकूँ।"

पवनपुत्र ने लौटकर जब दशरथनन्दन को सीता का संदेश दिया तो उन्होंने विभीषण से कहा, "भाई विभीषण! तुम शीघ्र जाकर सीता को अंगराग तथा दिव्य आभूषणों से विभूषित करके मेरे पास ले आओ।"

आज्ञा पाकर विभीषण ने स्वयं वैदेही का पास जाकर उनके दर्शन किया और उन्हें श्री राम द्वारा दी गई आज्ञा कह सुनाई। पति का संदेश पाकर सीता श्रृंगार कर पालकी पर बैठ विभीषण के साथ उस स्थान पर पहुँचीं जहाँ उनके पति का शिविर था। फिर पालकी से उतरकर पैदल ही सकु्चाती हुईं अपने पति के सम्मुख जाकर उपस्थित हो गईं। आगे वे थीं और उनके पीछे विभीषण। उन्होंने बड़े विस्मय, हर्ष और स्नेह से पति के मुख का दर्शन किया। उस समय उनका मुख आनन्द से प्रातःकालीन कमल की भाँति खिल उठा।

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मन्दोदरी का विलाप और रावण की अन्त्येष्टि - युद्धकाण्ड (22)

>> Monday, April 19, 2010

रावण की मृत्यु का समाचार सुनकर मन्दोदरी सहित उसकी सभी रानियाँ शोकाकुल होकर अन्तःपुर से निकल पड़ीं। वे चीख-चीख कर विलाप करने लगीं। 'हा आर्यपुत्र! हा नाथ!' पुकारते हुये वे कटी हुई लताओं की भाँति रावण के मृत शरीर पर गिर कर हाहाकार करने लगीं, "हाय! असुर, देवता और नाग जिसके भय से काँपा करते थे, आज उन्हीं की एक मनुष्य ने यह दशा कर दी। आपके प्रिय भाई विभीषण ने आपके हित की बात कही थी, उसे ही आपने निकाल बाहर किया। राक्षसशिरोमणे! ऐसी बात नहीं है कि आपके स्वेच्छाचार से हमारा विनाश हुआ है, दैव ही सब कुछ कराता है।"

मन्दोदरी बिलख-बिलख कर कह रही थी, "नाथ! पहले आपने इन्द्रियों को जीतकर ही तीनों लोकों पर विजय पाई थी, उस बैर का प्रतिशोध लेकर इन्द्रियों ने ही अब आपको परास्त किया है। खर के मरने पर ही मुझे विश्‍वास हो गया था कि राम कोई साधाराण मनुष्य नहीं है। मैं ने बारम्बार आपसे कहा था, रघुनाथ जी से बैर-विरोध न लें, किन्तु आप नहीं माने। उसी का आज यह फल मिला है। आपने महान तेजस्वी सीता का अपहरण किया। वे संसार की महानतम पतिव्रता नारी हैं। उनका अपहरण करते समय ही आप जलकर भस्म नहीं हो गये, यही महान आश्‍चर्य है। आज वही सीता आपकी मृत्यु का कारण बन गई। हाय स्वामी! आपकी मृत्यु कैसे हो गई? आप तो मृत्यु की भी मृत्यु थे। फिर स्वयं ही मृत्य के आधीन कैसे हो गये? महाराज! पतिव्रता के आँसू इस पृथ्वी पर व्यर्थ नहीं गिरते, यह कहावत आपके साथ ठीक-ठीक घटी है। आपने युद्ध में कभी कायरता नहीं दिखाई, परन्तु सीता का हरण करते समय आपने कायरता का ही परिचय दिया था। मैं शोक से पीड़ित हो रही हूँ औ आप मुझे सान्त्वना भी नहीं दे रहे। आज आपका वह प्रेम कहाँ गया?"

इन शोकविह्वल रानियों को देखकर श्रीराम ने विभीषण से कहा, "हे विभीषण! इन्हें धैर्य बँधाओं और अपने भाई का अन्तिम संस्कार करो।"

श्रीराम की आज्ञा पाकर विभीषण ने माल्यवान के साथ मिलकर दाह संस्कार की तैयारी की। शव को भली-भाँति सजाकर शवयात्रा निकाली गई जिसमें नगर के समस्त लंकानिवासियों और अन्तःपुर की सभी रानियों ने भाग लिया। वेदोक्‍त विधि से उसका अन्तिम संस्कार किया गया।

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रावण वध - युद्धकाण्ड (21)

>> Saturday, April 17, 2010

उधर रावण रथाढ़ूर हो फिर युद्ध करने के लिये लौट आया। राम पृथ्वी पर खड़े होकर रथ में सवार रावण से युद्ध करने लगे तो देवराज इन्द्र ने उनके पास अपना रथ भिजवाकर प्रार्थना की कि वे उस पर सवार होकर युद्ध करें। दोनों ही पराक्रमी वीर रथों पर सवार होकर भीषण युद्ध करने लगे। उनके अद्‍भुत रण-कौशल को देखकर दिग्गज वीरों भी रोमांचित होने लगे। इधर रावण ने नागास्त्र छोड़ा तो उधर श्रीराम ने गरुड़ास्त्र। रावण ने इन्द्र के रथ की ध्वजा काट डाली और घोड़ों को घायल कर दिया। रावण के बाणों से बार-बार आहत होने के कारण श्रीराम अपने बाणों को प्रत्यंचा पर नहीं चढ़ा पा रहे थे। जब रावण ने उन पर शूल नामक महाभयंकर शक्‍ति छोड़ी तो राम ने क्रोधपूर्वक इन्द्र द्वारा दी हुई शक्‍ति छोड़कर उस शूल को नष्ट कर दिया। फिर उन्होंने लगातार बाण वर्षा करके रावण को बुरी तरह घायल कर दिया। रावण की यह दशा देखकर उसका सारथी उसे रणभूमि से बाहर ले गया। अपने सारथी के इस कार्य से रावण को बहुत क्रोध आया और उस फटकार कर उसने रथ को पुनः रणभूमि में ले चलने आज्ञा दी।

श्रीराम के सम्मुख पहुँचकर वह फिर उन पर बाणों की वर्षा करने लगा। दोनों महावीर महारथियों के बीच फिर ऐसा भयंकर युद्ध आरम्भ हुआ कि वानरों और राक्षसों की विशाल सेनाएँ और पराक्रमी वीर अपने हाथों में हथियार होते हुये भी निश्‍चेष्ट होकर उनका रणकौशल देखने लगे। राक्षसों की द‍ृष्टि रावण के पराक्रम पर अटकी हुई थी तो वानरों की श्रीराम के शौर्य पर। श्रीराम को अपनी विजय पर पूर्ण विश्‍वास था और परिस्थितियों को देखते हुये रावण समझ गया था कि उसकी मृत्यु निश्‍चित है। यह सोचकर दोनों रणकेसरी अपनी पूरी शक्‍ति से युद्ध करने लगे। पहले रामचन्द्र जी ने रावण के रथ की ध्वजा को एक ही बाण से काट गिराया। इससे क्रोधित होकर रावण चारों ओर गदा, चक्र, परिध, मूसल, शूल तथा माया निर्मित शस्त्रों की वर्षा करने लगा। दोनों ओर से भयानक घात-प्रतिघात होने लगे। युद्ध विषयक प्रवृति और निवृति में दोनों ही रणपण्डित अपना-अपना अद्‍भुत कौशल दिखाने लगे। सनसनाते बाणों के घटाटोप से सूर्य की प्रभा लुप्त हो गई और वायु की गति भी मन्द पड़ गई। देव, गन्धर्व, किन्नर, यक्ष, सिद्ध, महर्षि सभी चिन्ता में पड़ गये। तभी अवसर पाकर महाबाहु राम ने एक विषधर समान बाण छोड़कर रावण का मस्तक काट डाला, परन्तु उसके स्थान पर रावण का वैसा ही दूसरा नया सिर उत्पन्न हो गया। जब श्रीराम ने उसे भी काट डाला तो वहाँ तीसरा शीश प्रकट हो गया। इस प्रकार बार-बार शीश कटने पर भी उसका अन्त नहीं हो रहा था।

यह दशा देखकर इन्द्र के सारथी मातलि ने कहा, "प्रभो! आप इसे मारने के ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कीजिये। अब उसके विनाश का समय आ पहुँचा है। मातलि की बात सुनकर रघुनाथ जी को ब्रह्मा के उस बाण का स्मरण हो आया जो उन्हें अगस्त्य मुनि ने दिया था। उन्होंने रावण की छाती को लक्ष्य करके वह बाण पूरे वेग के साथ छोड़ दिया जिसने रावण के हृदय को विदीर्ण कर दिया। इससे रावण के प्राण पखेरू उड़ गये। रावण को मारकर वह बाण पृथ्वी में समा गया और पुनः स्वच्छ होकर श्रीराम के तरकस में लौट आया। रावण के विनाश और श्रीराम की विजय से समस्त लोकों में हर्ष की लहर दौड़ गई। चारों ओर श्रीराम की जयजयकार होने लगी। वानर सेना में आनन्द का पारावार न रहा। प्रत्ये सैनिक विजय गर्व से फूला न समाता था।

पराजित और मरे हुये भाई को देखकर विभीषण अपने आँसुओं को न रोक सका और वह फूट-फूट कर विलाप करने लगा और कहने लगा, "हे भाई! अहंकार के वशीभूत होकर तुमने मेरी, प्रहस्त, कुम्भकर्ण, इन्द्रजित, नरान्तक आदि किसी की भी बात न मानी। उसी का फल यह सामने आया। तुम्हारे मरने से नीति पर चलने वाले लोगों की मर्यादा टूट गई, धर्म का मूर्तिवान विग्रह चला गया, सूर्य पृथ्वी पर गिर पड़ा, चन्द्रमा अन्धेरे में डूब गया और जलती अग्नि शिखा बुझ गई।"

विभीषण को इस प्रकार विलाप करते देख श्रीराम ने उसे समझाया, "हे विभीषण! तुम्हें इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिये। रावण असमर्थ होकर नहीं मरा है। उसने प्रचण्ड पराक्रम का प्रदर्शन किया है। इस प्रकार क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुये मरने वालों के लिये शोक नहीं करना चाहिये। युद्ध में सदा विजय ही विजय मिले, ऐसा पहले भी कभी नहीं हुआ है। यह सोचकर उठो और संयत मन से प्रेत कर्म करो। मैं इसमें तुम्हें पूरा सहयोग दूँगा। बैर जीवनकाल तक ही रहता है। मरने के बाद उस बैर का अन्त हो जाता है। इसलिये यह जैसा तुम्हारा स्नेहपात्र है, उसी तरह मेरा भी है।"

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लक्ष्मण मूर्छित - युद्धकाण्ड (20)

>> Monday, April 12, 2010

इस भयंकर युद्ध में लक्ष्मण ने रावण की ध्वजा काटकर उसके सारथि का वध कर डाला और रावण के धनुष को काट डाला। साथ ही विभीषण ने भी अपनी गदा से रावण के रथ के घोड़ों को मार डाला। विभीषण के इस कृत्य से रावण को इतना क्रोध आया कि उसने विभीषण पर एक प्रज्वलित शक्‍ति चलाई किन्तु विभीषण के पास आने के पहले ही लक्ष्मण ने उस शक्‍ति को अपने बाणों से नष्ट कर दिया। इस पर अत्यन्त क्रोधित होकर रावण ने विभीषण पर ऐसी अमोघ शक्‍ति चलाई जिसका वेग काल भी न सह सकता था। विभीषण के प्राण संकट में देख लक्ष्मण स्वयं आगे बढ़कर शक्‍ति के सामने खड़े हो गये। वज्र और अशनि के समान गड़गड़ाहट उत्पन्न करने वाली तथा विषधर सर्प के समान वह भयंकर महातेजस्वी शक्‍ति लक्ष्मण आकर लगी। उस नागराज वासुकी की जिह्वा के समान देदीप्यमान शक्ति ने लक्ष्मण के वक्ष को विदीर्ण कर दिया और वे रक्‍त से लथपथ होकर मूर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़े।

वानरों ने उस शक्‍ति को लक्ष्मण के शरीर में से निकालने का भरसक प्रयत्न किया, किन्तु सफल न हो सके। अन्त में श्री राम ने पूरी शक्‍ति लगा कर दोनों हाथों से खींचकर उसे बाहर निकाला और तोड़कर भूमि पर फेंक दिया। जब तक राम शक्‍ति को खींचकर निका;लते रहे रावण निरन्तर बाणों की वर्षा करके उन्हें घायल करता रहा। शक्‍ति निकाल कर उन्होंने शीघ्र ही रावण को मार डालने की प्रतिज्ञा की। फिर वे रावण के साथ भयानक युद्ध करने लगे। जब रावण उनके बाणों को न सह सका तो वह घायल होकर रणभूमि से भाग गया।

श्रीराम लक्ष्मण के पास बैठकर नाना प्रकार से विलाप करने लगे। उनके विलाप से दुःखी सारी वानर सेना रोने लगी। तभी सुषेण ने कहा, "हे वीरशिरोमणि! आप दुःखी न हों। ये जीवित हैं, इनकी हृदयगति चल रही है।"

फिर हनुमान से कहा, "तुम शीघ्र ही महोदय पर्वत पर जाकर विशल्यकरणी, सावण्‍यकरणी, संजीवकरणी तथा संघानी नामक औषधियाँ ले आओ। उनसे लक्ष्मण के प्राणों की रक्षा हो सकेगी।" सुषेण के निर्देशानुसार हनुमान तत्काल महोदय गिरि पर जा पहुँचे, परन्तु इन औषधियों की पहचान न होने के कारण उस शिखर को ही उखाड़ लाये जिस पर अनेक प्रकार की औषधियों के वृक्ष उग रहे थे। सुषेण ने इनमें से औषधियों को पहचानकर उनको कूट-पीस कर लक्ष्मण को सुँघाया। इससे वे थोड़ी ही देर में स्वस्थ होकर उठ खड़े हुये।

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भयानक युद्ध - युद्धकाण्ड (19)

>> Wednesday, April 7, 2010

राक्षस सेना को रावण के साथ आया देखकर वानर सेना भी ललकारती हुई सामने आ पहुँची। उसे देखकर रावण का क्रोध और भड़क गया। अत्यन्त क्रोधित हो उसने भारी मारकाट मचा दी। कितने ही वानरों के सिर काट डाले, कितनों के मस्तक कुचल डाले, कितनों ही की वक्ष चीर डाले। जिधर भी उसकी द‍ृष्टि घूम जाती, वहीं उसके बाण वीर यूथपतियों को अपनी मार से व्याकुल कर देते। अन्त में बचे घायल वानरों ने दौड़कर श्री रामचन्द्र जी के पास गुहार लगाई। उनके पीछे-पीछे रावण भी श्री राम के सामने जा पहुँचा।

वानर सेना की दुर्दशा देखकर सुग्रीव ने सेना को संयत रखने का भार वीर सुषेण पर सौंपा और स्वयं एक विशाल वृक्ष उखाड़कर शत्रु पर आक्रमण करने के लिये दौड़ा। अनेक यूथपति भी बड़े-बड़े वृक्ष और पत्थर लेकर उसके पीछे-पीछे चले। उनकी मार से राक्षस सेना धराशायी होने लगी। राक्षस सेना को नष्ट होते देख विरूपाक्ष गर्जना करते हुये सुग्रीव पर आक्रमण करने के लिये दौड़ा। सुग्रीव ने एक बड़ा वृक्ष उस पर दे मारा जिससे विरूपाक्ष का हाथी वहीं मरकर ढेर हो गया। हाथी की पीठ से कूदकर हाथ में तलवार ले विरूपाक्ष सुग्रीव पर झपटा। दोनों में भयंकर युद्ध हुआ। उसकी तलवार से घायल हो सुग्रीव ने क्रोध से दाँत किटकिटाकर उसके वक्ष पर मुक्के का प्रहार किया। इससे वह और क्रुद्ध हो गया और तलवार के एक ही वार से सुग्रीव का कवच काट डाला। तब अत्यन्त कुपित हो सुग्रीव ने उस पर लगातार अनेक प्रहार किये। उसके शरीर से रक्‍त बहने लगा, एक आँख फूट गई। अन्त में उसने वहीं दम तोड़ दिया।

विरूपाक्ष के वध से कुपित  महोदर ने वानर सेना में भयंकर संहार आरम्भ कर दिया। जब घायल होकर वानर इधर-उधर भागने लगे तो सुग्रीव ने एक बड़ी शिला उस पर दे मारी जिसे महोदर ने अपने बाणों से बीच में ही काट डाला। फिर सुग्रीव ने एक साल वृक्ष से उस पर आक्रमण किया, किन्तु उसने उसे भी काट डाला। जब सुग्रीव ने मारने के लिये परिध उठाया तो महोदर ने गदा से आक्रमण करना आरम्भ कर दिया। युद्ध में जब परिध और गदा दोनों टूट गये तो वे दोनों एक दूसरे पर मुक्कों से वार करने लगे। दोनों में से कोई भी हार मानने को तैयार नहीं था। तभी सुग्रीव और महोदर ने वहाँ पड़ी तलवारों को उठा लिया। महोदर ने तलवार से सुग्रीव का कवच काटने के लिये आक्रमण किया तो तलवार कवच में अटक गई। जब वह तलवार को खींच रहा था तभी सुग्रीव ने उसके सिर को धड़ से अलग कर उसे यमलोक पहुँचा दिया।

महोदर को मर जाने पर महापार्श्‍व सुग्रीव पर तीक्ष्ण हथियारों की मार करता हुआ टूट पड़ा। सामने जाम्बवन्त और अंगद को देखकर उसने अपने बाणों से दोनों को घायल कर दिया। इससे अंगद के नेत्र क्रोध से लाल हो गये। उसने एक परिध को उसकी ओर इतने वेग से फेंका कि उसके हाथ से धनुष और सिरस्त्राण छूटकर दूर जा गिरे। इससे क्रोधित होकर महापार्श्‍व ने एक तीक्ष्ण परशु अंगद पर फेंका किन्तु अंगद ने उसका वार बचाकर पूरी शक्‍ति से राक्षस के सीने पर घूँसा मारा। वज्र के समान घूँसा पड़ते ही उसका हृदय फट गया और वह वहीं मरकर धराशायी हो गया।

इधर जब रावण ने अपने तीनों पराक्रमी वीरों की मृत्यु का समाचार सुना तो उसने अपने तामस नामक अस्त्र से वानरों को भस्म करना आरम्भ कर दिया। रावण को विशाल वानर सेना का संहार करते देख राम और लक्ष्मण अपने-अपने धनुष बाणों को लेकर युद्ध करने के लिये तैयार हुये। सबसे पहले लक्ष्मण ने अपने बाणों से रावण पर आक्रमण किया। रावण लक्ष्मण के बाणों को काटते हुये श्री राम के सामने जा पहुँचा और उन पर बाणों की वर्षा करने लगा। राम ने भी इसका उचित उत्तर दिया और दोनों ओर से भयंकर युद्ध होने लगा। दोनों ही दो भयानक यमराजों की भाँति एक दूसरे से भिड़ रहे थे और नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से आक्रमण कर रहे थे। रावण ने सिंह, बाघ, कंक, चक्रवाक, गीध, बाज, मगर, विषधर जैसे मुख वाले बाणों की वर्षा की तो श्रीराम ने अग्नि, सूर्य, चन्द्र, धूमकेतु, उल्का तथा विद्युत प्रभा के समान बाणों से आक्रमण किया। दोनों ही वीर उन अस्त्रों का निवारण कर नया आक्रमण कर देते थे। कुपित रावण ने दस बाण एक साथ छोड़कर रघुनाथ जी को घायल कर दिया। उसकी चिन्ता न करते हये उन्होंने भी रावण को बुरी तरह से घायल कर दिया।

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रावण का युद्ध के लिये प्रस्थान - युद्धकाण्ड (18)

>> Tuesday, April 6, 2010

अपने पुत्र इन्द्रजित की मृत्यु का समाचार सुनकर रावण दुःखी एवं व्याकुल हो विलाप करने लगा। फिर पुत्रवध के प्रतिशोध की ज्वाला ने उसे अत्यन्त क्रुद्ध कर दिया। वह राक्षसों को एकत्रित कर बोला, "हे निशाचरों! मैंने घोर तपस्या करके ब्रह्माजी से अद्‍भुत कवच प्राप्त किया है। उसके कारण मुझे कभी कोई देवता या राक्षस पराजित नहीं कर सकता। देवासुर संग्राम में प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने मुझे बाण सहित विशाल धनुष भी दिया है। आज मैं उसी धनुष से राम-लक्ष्मण का वध करूँगा। मेरे पुत्र मेघनाद ने वानरों को भ्रम में डालने के लिये माया की सीता बनाकर उसका वध किया था, परन्तु मैं आज वास्तव में सीता का वध करके उस झूठ को सत्य कर दिखाउँगा।"

इतना कहकर वह चमचमाती हुई तलवार लेकर सीता को मारने के लिये अशोकवाटिका में जा पहुँचा।

रावण को यह नीच कर्म करने के लिये तैयार देखकर रावण के एक विद्वान और सुशील मन्त्री सुपार्श्‍व ने उसे रोकते हुये कहा, "महाराज दशग्रीव! आप प्रकाण्ड पण्डित और वेद-शास्त्रों के ज्ञाता हैं। क्रोध के वशीभूत होकर आप सीता की हत्या क्यों करना चाहते हैं। किन्तु क्या क्रोध के कारण धर्म को भूलना उचित है? आप सदैव धैर्यपूर्वक कर्तव्य का पालन करते आये हैं। इसलिये यह अनुचित कार्य न करें और हमारे साथ चलकर रणभूमि में राम पर अपना क्रोध उतारें।"

मन्त्री के वचन सुनकर रावण वापस अपने महल लौट गया। वहाँ मन्त्रियों के साथ आगे की योजना पर विचार करने लगा। फिर बोला, "कल हमको पूरी शक्‍ति से राम पर आक्रमण कर देना चाहिये।"

रावण की आज्ञा पाकर दूसरे दिन प्रातःकाल लंका के वीर राक्षस नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर वानर सेनाओं से जा भिड़े। परिणाम यह हुआ कि दोनों ओर के वीरों द्वारा किये गये आक्रमण और प्रतिआक्रमण से समरभूमि में रक्‍त की धारा बह चली जो मृत शरीरों को लकड़ी की तरह बहा रही थी। जब राक्षसों ने वानर सेना की मार-मार कर दुर्गति कर दी तो स्वयं श्री राम ने वानरों पर आक्रमण करती हुई राक्षस सेना का देखते-देखते इस प्रकार सफाया कर दिया जिस प्रकार से तेजस्वी सूर्य की किरणें रात्रि के तम का सफाया कर देती हैं। उन्होंने केवल आधे पहर में दस हजार रथों, अठारह हजार हाथियों, चौदह हजार अश्‍वारोही वीरों और दो लाख पैदल सैनिकों को मार गिराया।

जब लंका में इस भयानक संहार की सूचना पहुँची तो सारे नगर में हाहाकार मच गया। राक्षस नारियाँ अपने पिता, पति, पुत्र, भाई आदि का स्मरण कर करके भयानक क्रन्दन करने लगीं। रावण ने क्रुद्ध, दुःखी और शोकाकुल होकर महोदर, महापार्श्‍व और विरूपाक्ष को युद्ध करने के लिये बुला भेजा। उनके आने पर वह स्वयं भी करोड़ों सूर्यों के समान दीप्तिमान तथा आठ घोड़ों से सुसज्जित रथ पर बैठकर उन्हें साथ ले युद्ध करने को चला। उसके चलते ही मृदंग, पाह, शंख आदि नाना प्रकार के युद्धवाद्य बजने लगे। महापार्श्‍व, महोदर और विरूपाक्ष भी अपने-अपने रथों पर सवार होकर उसके साथ चले। उस समय सूर्य की प्रभा फीकी पड़ गई। सब दिशाओं में अन्धेरा छा गया। भयंकर पक्षी अशुभ बोली बोलने लगे। धरती काँपती सी प्रतीत होने लगी, ध्वज के अग्रभाग पर गृद्ध आकर बैठ गया। बायीं आँख फड़कने लगी। किन्तु इन भयंकर अशुभ लक्षणों की ओर ध्यान न देकर रावण अपनी सेना सहित युद्धभूमि में जा पहुँचा।

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